लिट्टी चोखा: बिहार की मिट्टी का स्वाद और समृद्ध परंपरा
भोजपुरी समाज की पहचान, उसकी संस्कृति और उसकी मिट्टी का स्वाद अगर कहीं एक साथ मिलता है, तो वह है लिट्टी चोखा। यह सिर्फ एक व्यंजन नहीं, बल्कि बिहार और इसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के दिलों में बसा हुआ एक एहसास है । इसकी लोकप्रियता सीमाओं को पार कर चुकी है और आज यह भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अपनी खास पहचान बना चुका है । लिट्टी चोखा उस सादगी का प्रतीक है जिसमें गहराई छिपी है और उस स्वाद की समृद्धि का परिचायक है जो हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है । यह व्यंजन दिखाता है कि कैसे कुछ साधारण सामग्री मिलकर एक ऐसा भोजन बना सकती हैं जो न केवल पेट भरता है, बल्कि संस्कृति और इतिहास की कहानियाँ भी कहता है।
लिट्टी चोखा का इतिहास और उत्पत्ति
लिट्टी चोखा की उत्पत्ति सदियों पहले प्राचीन मगध साम्राज्य में हुई थी, जहां यह राजदरबार का स्टेपल फूड था। बिहार, जिसे संस्कृत शब्द "विहार" से नाम मिला, बौद्ध धर्म का जन्मस्थान और मौर्य साम्राज्य का केंद्र था। इसी समृद्ध इतिहास के बीच लिट्टी चोखा विकसित हुआ और समय के साथ इसमें विभिन्न संस्कृतियों का प्रभाव भी देखने को मिला।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी लिट्टी चोखा ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1857 के विद्रोह के दौरान, यह स्वतंत्रता सेनानियों का मुख्य भोजन था । तांत्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई जैसे महान नेताओं ने इसे 'जीवन रक्षक भोजन' के रूप में चुना था । इसका कारण यह था कि इसे बिना किसी बर्तन के और बहुत कम पानी में भी बनाया जा सकता था, खासकर जंगलों और बीहड़ों में छिपने वाले क्रांतिकारियों के लिए यह बहुत उपयोगी था । यह 48 घंटे से भी अधिक समय तक खाने योग्य रहता था, जो इसे यात्रा और युद्ध के समय के लिए एक आदर्श भोजन बनाता था।
समय के साथ, लिट्टी चोखा ने विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों को भी आत्मसात किया। मुगल काल के दौरान, इसे शाही रसोई में शोरबा और पायस के साथ परोसा जाता था । जब अंग्रेज आए, तो उन्होंने भी इस व्यंजन को पसंद किया और इसे करी के साथ खाना शुरू कर दिया । इस तरह, लिट्टी चोखा ने बदलते समय के साथ खुद को ढाला और हर दौर में अपनी पहचान बनाए रखी।
लिट्टी चोखा की विशेषता और मौसमी महत्व
लिट्टी चोखा की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सरलता और पोषण मूल्य है। गेहूं के आटे से बनी लिट्टी में भरा जाने वाला सत्तू (भुने हुए चने का आटा) प्रोटीन और फाइबर से भरपूर होता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में लिट्टी को अक्सर उपलों (गोबर के कंडे) पर पकाया जाता है, जो इसे एक विशिष्ट धुआंदार स्वाद प्रदान करता है। शहरी क्षेत्रों में भले ही इसे गैस या ओवन पर बनाया जाए, लेकिन असली स्वाद तो उपलों पर पकी लिट्टी का ही होता है।
आज के समय में लिट्टी चोखा जब मन चाहे बनाया जा सकता है, लेकिन एक दौर था जब यह स्वादिष्ट व्यंजन ग्रामीण भारत की मिट्टी से जुड़ा हुआ था, खासकर बारिश के मौसम में। उस समय खाना चूल्हे पर लकड़ी जलाकर बनाया जाता था, पर जब मॉनसून की झमाझम बारिश होती, तो लकड़ियाँ भीगकर बेकार हो जातीं। ऐसे में गाँव के लोग अपनी सूझबूझ से काम लेते और गाय के गोबर से बने उपलों (गोइठी) का इस्तेमाल करते।
ये उपले उनके टाट के घरों में सावधानी से रखे जाते थे, ताकि बारिश की नमी इन्हें खराब न कर सके। जब लिट्टी चोखा बनाने की बारी आती, तो इन्हीं उपलों को जलाया जाता। उपलों की धीमी और एकसमान आँच में पकने से लिट्टी की गेहूँ की लोइयाँ और बैगन की मसली चोखे एक अनोखा स्वाद पातीं। सबसे खास थी वह सोधी महक, जो उपलों के धुएँ से इस व्यंजन में समा जाती थी, इसे और भी लज़ीज़ बना देती थी।
यही वजह थी कि ग्रामीण इलाकों में बारिश के दिनों में लिट्टी चोखा सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि एक परंपरा बन जाता था। यह न केवल पेट भरता था, बल्कि गाँव की संस्कृति और संसाधनशीलता की मिसाल भी पेश करता था।
धार्मिक महत्व और लिट्टी चोखा मेला
लिट्टी चोखा का धार्मिक महत्व भी उतना ही रोचक है। बिहार के बक्सर जिले में हर साल मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि से एक विशेष मेला शुरू होता है, जिसे पंचकोस मेला या 'लिट्टी-चोखा' मेला के नाम से जाना जाता है।
इस मेले की रोचक बात यह है कि इसका संबंध भगवान श्रीराम से भी जोड़ा जाता है। लोकमान्यताओं के अनुसार, महर्षि विश्वामित्र के आग्रह पर बक्सर आए श्रीराम ने ताड़का, सुबाहु और अन्य राक्षसों का संहार किया था। इसके बाद वे पांच ऋषियों के आश्रमों की यात्रा पर गए थे, जहां उन्होंने रात्रि विश्राम किया और ऋषियों द्वारा दिया गया भोजन ग्रहण किया।
मान्यता है कि इन्हीं ऋषियों ने श्रीराम के स्वागत में जो व्यंजन परोसे थे, उसी परंपरा का पालन करते हुए आज भी इस मेले में विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग प्रसाद वितरित किए जाते हैं। इस पांच दिवसीय मेले में बिहार के अलावा पड़ोसी राज्यों और नेपाल से भी लोग शामिल होते हैं।
समय के साथ लिट्टी चोखा की यात्रा
लिट्टी चोखा ने प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक एक लंबी और दिलचस्प यात्रा तय की है। इसकी शुरुआत मगध साम्राज्य में सैनिकों और यात्रियों के लिए एक पोर्टेबल और पौष्टिक भोजन के रूप में हुई थी । स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, यह स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक महत्वपूर्ण भोजन बन गया । मुगल काल में इसने शाही रसोई तक भी अपनी पहचान बनाई और विभिन्न प्रकार से परोसा गया । ब्रिटिश काल में भी इसकी लोकप्रियता बनी रही । और आज, यह आधुनिक समय में शहरी और वैश्विक स्तर पर भी अपनी पहचान बना चुका है ।
आज का लिट्टी चोखा
आज, लिट्टी चोखा बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक लोकप्रिय स्ट्रीट फूड है । यह भारत के अन्य हिस्सों और विदेशों में भी खूब पसंद किया जाता है । अब तो यह महानगरीय शहरों के रेस्तरांओं में भी आसानी से मिल जाता है । समय के साथ, इसमें कई बदलाव और आधुनिक प्रस्तुतियाँ भी देखने को मिलती हैं । सेलिब्रिटी शेफ और राजदूत भी अब इसके स्वाद के दीवाने हो रहे हैं ।
लिट्टी चोखा की सामग्री और बनाने की विधि
लिट्टी बनाने के लिए मुख्य सामग्री

गेहूं का आटा
सत्तू (भुने हुए चने का आटा)
अजवाइन, सौंफ, हींग, नमक, मसाले
सरसों का तेल
घी
चोखा बनाने के लिए मुख्य सामग्री

बैंगन (भुना हुआ)
टमाटर (भुना हुआ)
आलू (उबला हुआ)
प्याज, लहसुन, हरी मिर्च, धनिया, सरसों का तेल, नमक, अमचूर पाउडर
ग्रामीण क्षेत्रों में लिट्टी बनाने की विधि कुछ इस प्रकार है:
1. गेहूं के आटे में नमक, सरसों का तेल मिलाकर मोटा आटा गूंथा जाता है।
2. सत्तू में मसाले, अजवाइन, हींग, नमक और सरसों का तेल मिलाकर स्टफिंग तैयार की जाती है।
3. आटे की लोई से छोटी-छोटी गोलियां बनाकर, उनमें सत्तू का मिश्रण भरा जाता है और फिर से गोल आकार दिया जाता है।
4. इन्हें गोबर के उपलों की आग पर या फिर लकड़ी , कोयला की आग पे पकाया जाता है। आजकल, शहरों में लोग इसे गैस ओवन, तंदूर या माइक्रोवेव में भी बनाते हैं, लेकिन उपले (गोइठी) पर बनी लिट्टी का स्वाद बिल्कुल अलग होता है । पकी हुई लिट्टी को घी में डुबोकर परोसा जाता है।
5. चोखा बनाने के लिए बैंगन, टमाटर और लहसुन को आग पर भुनकर मसला जाता है, फिर उसमें कटे हुए प्याज, हरी मिर्च, नमक और नींबू का रस मिलाया जाता है। अंत में, इसे घी और चटनी के साथ परोसा जाता है ।
लिट्टी चोखा का विश्वव्यापी प्रसार
आज लिट्टी चोखा सिर्फ बिहार या झारखंड तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह देश के विभिन्न शहरों में लोकप्रिय हो चुका है। मुंबई जैसे महानगरों में भी इस पारंपरिक व्यंजन को परोसने वाले विशेष स्थान हैं, जहां इसे हरी मसालेदार चटनी के साथ परोसा जाता है।
वैश्विक स्तर पर भी लिट्टी चोखा ने अपनी एक विशेष पहचान बनाई है। समय के साथ इसने अनेक बदलाव देखे हैं - मुगल काल में इसे पायस और शोरबा के साथ परोसा जाता था, अंग्रेजों के समय में करी के साथ, और आज विभिन्न प्रकार के फ्यूजन और आधुनिक संस्करण भी देखने को मिलते हैं।
आधुनिक युग में लिट्टी चोखा
आधुनिक समय में लिट्टी चोखा को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया जा रहा है। कई रेस्तरां और फूड ब्लॉगर्स इस पारंपरिक व्यंजन में अपने-अपने प्रयोग कर रहे हैं। कुछ जगहों पर पनीर या मशरूम भरकर बनाई गई लिट्टी भी मिलती है, जबकि चोखा में भी अलग-अलग सब्जियों का उपयोग किया जाता है।
सोशल मीडिया के युग में लिट्टी चोखा की लोकप्रियता और भी बढ़ी है, और युवा पीढ़ी भी इस पारंपरिक व्यंजन को अपना रही है। इसका स्वाद और पौष्टिकता इसे हेल्दी फूड ऑप्शन के रूप में भी स्थापित कर रही है।
लिट्टी चोखा सिर्फ एक व्यंजन नहीं, बल्कि बिहार की समृद्ध संस्कृति और इतिहास का प्रतिनिधित्व करता है। युद्ध के दौरान सैनिकों के अस्तित्व से लेकर आज के आधुनिक रसोईघरों तक, इस व्यंजन ने अपनी यात्रा में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन इसकी मूल आत्मा और स्वाद वही बना हुआ है।यह बिहार की मिट्टी की सुगंध, उसकी परंपराओं और लोगों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। जैसे-जैसे भारतीय व्यंजन विश्व स्तर पर अपनी जगह बना रहे हैं, लिट्टी चोखा भी उस सूची में अपना स्थान सुनिश्चित कर रहा है। यह हमारी गौरवशाली खाद्य परंपरा और संस्कृति का एक जीवंत उदाहरण है, जिसे आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करना हमारा कर्तव्य है।
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