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Krishna Janmashtami: Full Story, History, Puja Vidhi and Interesting Facts in Hindi

जन्माष्टमी: एक आस्था का उत्सव की विराट गाथा

जन्माष्टमी, भगवान विष्णु के आठवें अवतार, भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने वाला एक पावन पर्व है। यह भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को, रोहिणी नक्षत्र में, मध्यरात्रि में मनाया जाता है । जो आमतौर पर अगस्त या सितंबर में पड़ता है। यह तिथि न केवल एक ऐतिहासिक घटना की याद दिलाती है, बल्कि भारत और नेपाल सहित विश्वभर में भक्ति, उल्लास और आध्यात्म का संचार करती है । यह पर्व अधर्म पर धर्म की विजय और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, क्योंकि भगवान का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब उत्पीड़न चरम पर था और उनके मामा, राजा कंस, द्वारा उनके जीवन पर संकट मंडरा रहा था ।

यह रिपोर्ट जन्माष्टमी के पर्व की पौराणिक कथा से लेकर उसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आधुनिक पहलुओं तक की एक विस्तृत यात्रा है। यह पर्व की दिव्यता, उसके गहन प्रतीकात्मक अर्थ और समय के साथ हुए उसके विकास का विश्लेषण प्रस्तुत करती है, जिससे पाठक को इस महापर्व के बहुआयामी स्वरूप की एक संपूर्ण समझ मिल सके।

कृष्ण जन्म की अलौकिक गाथा


कंस की क्रूरता और आकाशवाणी का शाप
श्रीकृष्ण का जन्म करीब 3228 ईसा पूर्व मथुरा में हुआ था . पौराणिक कथा के अनुसार, द्वापर युग में मथुरा पर भोजवंशी राजा उग्रसेन का शासन था । उनका एक आततायी पुत्र था, जिसका नाम कंस था। कंस ने अपने पिता को कारागार में डालकर स्वयं राजपाट संभाल लिया । कंस की एक बहन थी, देवकी, जिसका विवाह यदुवंशी सरदार वसुदेव से हुआ था । एक समय जब कंस अपनी बहन देवकी को उसकी ससुराल छोड़ने जा रहा था, तभी एक भयावह आकाशवाणी हुई। उस आकाशवाणी ने कंस को आगाह किया, "हे कंस, जिस देवकी को तू इतने प्रेम से ले जा रहा है, उसी के गर्भ में तेरा काल बसता है। इसी के गर्भ से उत्पन्न आठवां बालक तेरा वध करेगा" । इस भविष्यवाणी ने कंस को भयभीत कर दिया और उसने तत्काल वसुदेव को मारने का प्रयास किया ।

देवकी-वसुदेव का कारावास और सात संतानों का बलिदान
देवकी ने अपने पति के जीवन की रक्षा के लिए कंस से विनयपूर्वक आग्रह किया, "मेरे गर्भ से जो भी संतान होगी, उसे मैं तुम्हारे सामने ला दूंगी।" देवकी के आग्रह को सुनकर कंस ने वसुदेव को छोड़ दिया, लेकिन उन दोनों को मथुरा के कारागार में डाल दिया । कंस ने अपनी क्रूरता की पराकाष्ठा दिखाते हुए, एक-एक करके देवकी और वसुदेव की सात संतानों को जन्म लेते ही मार डाला । हालाँकि, कुछ स्रोतों में वर्णित है कि बलराम देवकी की सातवीं संतान थे, जिन्हें योगमाया ने देवकी के गर्भ से स्थानांतरित करके वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया था । यह घटना दर्शाती है कि भगवान की लीला केवल दैवीय शक्तियों के प्रदर्शन तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें एक जटिल रणनीतिक योजना भी शामिल थी, जिसके द्वारा उन्होंने अपने बड़े भाई के जीवन की भी रक्षा की।

अष्टम संतान, स्वयं भगवान का प्राकट्य
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की घनघोर अंधेरी, आधी रात को, रोहिणी नक्षत्र के शुभ योग में, मथुरा के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया । उनके जन्म लेते ही पूरी कारागार कोठरी दिव्य प्रकाश से जगमगा उठी और उनके सामने स्वयं भगवान विष्णु शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए । भगवान ने अपने माता-पिता से अपने प्राकट्य का उद्देश्य बताते हुए कहा कि वे कंस का वध करने और धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए हैं। उन्होंने वसुदेव से कहा कि वे उन्हें पुनः नवजात शिशु के रूप में परिवर्तित कर रहे हैं, और वसुदेव को उन्हें अपने मित्र नंदजी के घर वृंदावन में छोड़ आने का आदेश दिया ।

अष्टम संतान, स्वयं भगवान का प्राकट्य
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की घनघोर अंधेरी, आधी रात को, रोहिणी नक्षत्र के शुभ योग में, मथुरा के कारागार में  देवकी ने एक दिव्य बालक को जन्म दिया – श्रीकृष्ण। जन्म के साथ ही चमत्कार हुआ: कारागार के दरवाजे खुद-ब-खुद खुल गए, पहरेदार गहरी नींद में सो गए, वसुदेव की जंजीरें टूट गईं। बालक कृष्ण ने वसुदेव से कहा कि उन्हें गोकुल ले जाओ, जहां नंद और यशोदा रहते हैं। वसुदेव ने बालक को टोकरी में रखा और यमुना नदी की ओर चल पड़े। भारी बारिश हो रही थी, लेकिन आदि-शेष (विष्णु का नाग) ने छत्र बनकर उनकी रक्षा की और यमुना ने रास्ता दे दिया।

कारावास के बंद कपाट और यमुना की लहरें: वसुदेव की अद्भुत यात्रा
भगवान की प्रेरणा से, वसुदेव ने नवजात शिशु रूप श्रीकृष्ण को एक सूप में रखकर कारागृह से बाहर निकलने का निश्चय किया । कारागार के सभी द्वार स्वतः ही खुल गए और पहरेदार गहरी नींद में डूब गए । रास्ते में उफनती हुई यमुना नदी ने उन्हें पार जाने का रास्ता दे दिया । यह घटना प्रतीकात्मक रूप से अत्यंत गहरी है। एक आध्यात्मिक व्याख्या के अनुसार, कारागार शरीर का प्रतीक है, वसुदेव जीवन शक्ति (प्राण) का, और देवकी शरीर का। जब शरीर प्राण धारण करता है, तो आनंद (श्रीकृष्ण) का जन्म होता है। कारागार के पहरेदार अहंकार की रक्षा करने वाली इंद्रियां हैं, जो अंतर्मुखी होने पर सो जाती हैं। इस प्रकार, यह कथा केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि आंतरिक आनंद के उदय का एक आध्यात्मिक रूपक भी है ।

गोकुल में नंद-यशोदा के घर बालकृष्ण का आगमन
वसुदेव यमुना पार कर गोकुल पहुंचे और अपने मित्र नंद के घर पहुंचकर वसुदेव ने देखा कि यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया है, लेकिन वह बेहोश है। उन्होंने कृष्ण को यशोदा के पास रखा और कन्या (जो योगमाया का स्वरूप थी) को लेकर वापस कारागार लौट आए।

कंस और योगमाया का संवाद: एक और भविष्यवाणी
जब कंस को यह सूचना मिली कि आठवें बच्चे का जन्म हुआ है, तो वह तत्काल कारागार में पहुंचा। उसने देवकी के हाथ से नवजात कन्या को छीनकर पृथ्वी पर पटकना चाहा । लेकिन कन्या उसके हाथ से फिसल गई, आकाश में उड़कर देवी दुर्गा का रूप धारण कर बोली: "अरे कंस! तेरा वध करने वाला तो कहीं और जन्म ले चुका है।" कंस भयभीत हो गया और उसने कृष्ण को मारने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन सभी विफल रहे। इस प्रकार, कृष्ण गोकुल में नंद-यशोदा के साथ बड़े हुए, जहां उन्होंने अपनी बाल लीलाओं से सबको मोहित किया।
यह कथा भगवत पुराण, हरिवंश और महाभारत से ली गई है, जो अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है।

कृष्ण जन्माष्टमी की उत्सव की शुरुआत: पहली बार कब मनाया गया?

कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव प्राचीन है, लेकिन इसका पहला ऐतिहासिक उल्लेख स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। विद्वानों का मानना है कि यह त्योहार भक्ति आंदोलन के दौरान 15वीं-16वीं शताब्दी में व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ, जब संत जैसे चैतन्य महाप्रभु और वल्लभाचार्य ने इसे बढ़ावा दिया। हालांकि, कृष्ण के जन्म का वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, जैसे हरिवंश (प्रथम-तृतीय शताब्दी ईस्वी), जो महाभारत का परिशिष्ट है। भगवत पुराण (नवीं-दसवीं शताब्दी) में इसका विस्तृत वर्णन है, जिससे लगता है कि उत्सव की शुरुआत गुप्त काल (300-600 ईस्वी) के आसपास हो सकती है, जब वैष्णव मंदिरों में कृष्ण पूजा प्रचलित हुई। पहली बार इसे मथुरा या वृंदावन में मनाया गया होगा, जहां कृष्ण की बाल लीलाएं हुईं।
कृष्ण जन्माष्टमी का उल्लेख किन ग्रंथों में?
यह त्योहार और कृष्ण का जन्म कई प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है:

महाभारत: कृष्ण के जीवन का मूल स्रोत, जहां वे अर्जुन के सारथी के रूप में दिखते हैं।
विष्णु पुराण: कृष्ण को विष्णु अवतार बताते हुए जन्म का उल्लेख।
गीता गोविंद: जयदेव की रचना, जिसमें कृष्ण की लीलाएं भक्ति भाव से वर्णित हैं।
श्रीमद्भागवत पुराण: यह ग्रंथ श्रीकृष्ण के जीवन पर केंद्रित एक प्रमुख स्रोत है । इसके दशम स्कंध में श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनकी लीलाओं तक का विस्तृत वर्णन है । भागवत पुराण यह भी बताता है कि श्रीकृष्ण चंद्रवंशी थे और उन्होंने चंद्रदेव को दिए वचन के कारण आधी रात को ही जन्म लिया ।
हरिवंश पुराण: यह विष्णु पुराण के साथ-साथ कृष्ण के जीवन और लीलाओं का एक महत्वपूर्ण स्रोत है । इस ग्रंथ में भगवान के जन्म लेने की योजना और योगमाया (निद्रा देवी) की भूमिका का भी उल्लेख है । इन पुराणों के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि यह तीसरी बार था जब भगवान ने देवकी और वसुदेव के पुत्र के रूप में जन्म लिया था, जो उनके पूर्वजन्मों में अदिति और कश्यप थे । यह एक गहरा आध्यात्मिक संबंध स्थापित करता है और यह दर्शाता है कि भगवान की लीला एक ही जन्म तक सीमित नहीं है, बल्कि जन्म-जन्मांतर के चक्र में चलती रहती है।

समय के साथ कृष्ण जन्माष्टमी में आए बदलाव: कालखंड अनुसार चर्चा
जन्माष्टमी का उत्सव समय के साथ विकसित हुआ है, जो सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक परिवर्तनों को दर्शाता है। यहां कालखंड अनुसार बदलाव:

प्राचीन काल (ईसा पूर्व से 300 ईस्वी) सरल पूजा-अर्चना, व्रत और ग्रंथ पाठ। कृष्ण को वैदिक देवता के रूप में पूजा, लेकिन त्योहार रूप में नहीं। हरिवंश में उल्लेख से लगता है कि जन्म दिवस पर पूजा होती थी।
गुप्त काल (300-600 ईस्वी) मंदिर निर्माण और मूर्ति पूजा का उदय। वैष्णव संप्रदाय मजबूत हुआ, जन्माष्टमी मथुरा में स्थानीय उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा।
मध्यकाल (800-1700 ईस्वी) भक्ति आंदोलन का प्रभाव: सूरदास, तुलसीदास जैसे कवियों ने ब्रज भाषा में कृष्ण भजन लिखे। चैतन्य महाप्रभु ने रासलीला और कीर्तन को लोकप्रिय बनाया। उत्सव में नृत्य-नाटक शामिल हुए, जैसे वृंदावन की रासलीला। मुगल काल में भी जारी रहा ।
औपनिवेशिक काल (1700-1947) लोकमान्य तिलक ने दही-हांडी को सामाजिक एकता का प्रतीक बनाया, जो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा। उत्सव सार्वजनिक हो गया, प्रोसेसन और प्रतियोगिताएं बढ़ीं।
आधुनिक काल (1947 से अब तक)वैश्विक प्रसार: डायस्पोरा के कारण फिजी, पाकिस्तान, अमेरिका में मनाया जाता है। टीवी, ऑनलाइन पूजा और ईको-फ्रेंडली सजावट शामिल। महाराष्ट्र में दही-हांडी खेल बन गया, दक्षिण में कोलम डिजाइन। लेकिन व्यावसायिकता बढ़ी, जैसे स्पॉन्सर्ड इवेंट्स।
 

मथुरा और वृंदावन का पारंपरिक जन्मोत्सव

आज भी जन्माष्टमी का पर्व कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा और वृंदावन सहित पूरे ब्रज क्षेत्र में विशेष धूमधाम और भक्ति-भाव के साथ मनाया जाता है । इन स्थानों पर मंदिरों को भव्य रूप से सजाया जाता है, रासलीला का मंचन होता है और भक्तगण भजन-कीर्तन में लीन रहते हैं । नंदगांव और बरसाना में तो यह उत्सव पाँच दिन पहले से ही शुरू हो जाता है, जिसमें बालकृष्ण की शरारतों और राधा-कृष्ण की लीलाओं का मंचन किया जाता है ।

महाराष्ट्र की दही-हांडी: रोमांच और टीम भावना का प्रतीक

दही-हांडी का उत्सव जन्माष्टमी के अगले दिन विशेष रूप से महाराष्ट्र और गुजरात में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है । यह परंपरा भगवान कृष्ण की बचपन की शरारतों को याद दिलाती है, जब वे अपने मित्रों के साथ मिलकर गोपियों के घरों से मक्खन और दही चुराया करते थे। जब गोपियों ने मटकियां ऊँची जगहों पर टांगना शुरू कर दिया, तो कृष्ण और उनके दोस्त एक मानव पिरामिड बनाकर उन तक पहुँच जाते थे । इस त्योहार में, 'गोविंदा' कही जाने वाली लड़कों की टोलियाँ मानव पिरामिड बनाकर ऊँचाई पर लटकी हुई दही से भरी मटकी को तोड़ती हैं । यह खेल टीम भावना और साहस का प्रतीक है । हालांकि, हाल के वर्षों में इस उत्सव का राजनीतिकरण और व्यावसायीकरण भी हुआ है । यह अब केवल एक धार्मिक त्योहार नहीं, बल्कि एक बड़े सामाजिक-राजनीतिक आयोजन में बदल गया है, जहाँ नेता अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, जो इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि कैसे पारंपरिक त्योहार आधुनिक समाज में नए रूप ले रहे हैं।

दक्षिण भारत की 'गोकुलाष्टमी': रंगोली और विशेष प्रसाद की परंपरा

दक्षिण भारत में इस पर्व को 'गोकुलाष्टमी' या 'जन्माष्टमी' के नाम से जाना जाता है । यहां घरों में चावल के आटे से भगवान कृष्ण के आगमन का प्रतीक माने जाने वाले छोटे पैरों के निशान बनाए जाते हैं । भक्त 'सीदाई', 'मुरुक्कू' और 'वेरकादलाई उरुंडई' जैसे विशेष नमकीन और मीठे व्यंजन तैयार करते हैं, जिन्हें भगवान को प्रसाद के रूप में अर्पित किया जाता है । दक्षिण भारत में कृष्ण के विभिन्न स्वरूपों जैसे गुरुवायुरप्पम (केरल), उडुपी कृष्ण (कर्नाटक), और पार्थ सारथी (तमिलनाडु) की पूजा की जाती है । यह दर्शाता है कि भगवान के विभिन्न रूप क्षेत्रीय संस्कृति और भक्ति के अनुसार ढल गए हैं, फिर भी उनका मूल संदेश प्रेम और समर्पण का ही रहता है ।

त्योहार का बाजारीकरण और आधुनिक समाज पर प्रभाव

आज जन्माष्टमी एक बड़ा व्यापारिक अवसर बन गया है । दिल्ली जैसे शहरों में लड्डू गोपाल की पोशाक, झूले और श्रृंगार का सामान लाखों-करोड़ों का कारोबार करता है, जो पहले मथुरा-वृंदावन तक ही सीमित था । यह एक सामाजिक-आर्थिक बदलाव है जहाँ त्योहार का बाजारीकरण स्थानीय कारीगरों को रोजगार देता है , लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या इस व्यावसायिकता ने पर्व की मूल आध्यात्मिक पवित्रता को कम किया है। इसके अलावा, प्रेम मंदिर जैसे बड़े धार्मिक स्थल अपने जन्माष्टमी उत्सव का सीधा प्रसारण (लाइव टेलीकास्ट) करते हैं, जिससे देश-विदेश के लाखों भक्त घर बैठे ही इस उत्सव में शामिल हो पाते हैं ।

 जन्माष्टमी पूजन विधि एवं व्रत विधान

व्रत के नियम: क्या करें और क्या न करें
जन्माष्टमी के व्रत को 'व्रतराज' कहा जाता है । व्रती को एक दिन पहले यानी सप्तमी तिथि से ही सात्विक भोजन करना चाहिए और मन को शांत रखना चाहिए । व्रत के दिन अन्न और नमक का सेवन नहीं करना चाहिए । फलाहार में आप दूध, दही, साबूदाना, कुट्टू का आटा और फल आदि का सेवन कर सकते हैं । इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना और दिन में सोने से बचना अनिवार्य है ।

पूजन सामग्री की विस्तृत सूची


पूजा स्थल की तैयारी :- सिंहासन/झूला, बन्दनवार, रंगोली, दीपक, धूप, अगरबत्ती, कपूर, जल कलश (चांदी, तांबे या मिट्टी का) 
भगवान के अभिषेक और श्रृंगार :- श्री कृष्ण की मूर्ति/चित्र, गंगाजल, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर), चंदन, कुंकु, इत्र, वस्त्र, आभूषण, मोरपंख, बांसुरी, तुलसी दल, पुष्प माला 
भोग और प्रसाद :- माखन-मिश्री, धनिया पंजीरी, पंच मेवा, ऋतुफल, मिष्ठान्न (पेड़ा, लड्डू आदि) 
अन्य आवश्यक वस्तुएँ :- खीरा (डंठल वाला), सिक्के, पान का बीड़ा (ताम्बूल), सुपारी, लौंग, इलायची, हल्दी की गांठ, पंच पल्लव (बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते) 

षोडशोपचार पूजा का महत्व और विधि
जन्माष्टमी की रात में, ठीक जन्म के समय, भगवान के बाल स्वरूप 'लड्डू गोपाल' की पूजा शुरू होती है । सबसे पहले, खीरे से प्रतीकात्मक रूप से भगवान का जन्म कराया जाता है। इस अनूठी परंपरा में, एक डंठल वाले खीरे को गर्भनाल का प्रतीक मानकर, पूजा के शुभ मुहूर्त में सिक्के से उसके डंठल को काटा जाता है, जैसे गर्भ से बच्चे को नाल से अलग किया जाता है ।

इसके बाद, भगवान को पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर) से स्नान कराया जाता है और फिर शुद्ध जल से अभिषेक किया जाता है । फिर उन्हें नए वस्त्र, आभूषण, मोरपंख और बांसुरी से सजाकर षोडशोपचार (16 चरणों वाली) पूजा की जाती है । पूजा के प्रमुख चरणों में आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत और गंध अर्पित करना शामिल है । पूजा और व्रत विधि का हर पहलू एक गहरी प्रतीकात्मकता से जुड़ा है। पंचामृत स्नान शरीर और आत्मा की शुद्धि का प्रतीक है, और माखन-मिश्री का भोग लगाना भगवान के बाल रूप के प्रति वात्सल्य और प्रेम को दर्शाता है ।

व्रत का पारण
जन्माष्टमी का व्रत रात 12 बजे के बाद, पूजा और प्रसाद वितरण के बाद ही खोला जाता है । कुछ भक्त अगले दिन सूर्योदय के बाद अष्टमी तिथि की समाप्ति पर पारण करते हैं । व्रत खोलने से पहले, भगवान को चढ़ाया गया प्रसाद ग्रहण करना चाहिए ।

जन्माष्टमी को विधि-विधान से मनाना चाहिए:
व्रत: सूर्योदय से आधी रात तक व्रत रखें। फलाहार करें, नमक से परहेज।
घर की सजावट: बाल कृष्ण की मूर्ति या झूला सजाएं। फूलों से रंगोली बनाएं, कृष्ण के पैरों के निशान बनाएं।
पूजा: शाम को संकल्प लें। आधी रात को अभिषेक: दूध, दही, घी, शहद से स्नान कराएं। आरती गाएं, भजन-कीर्तन करें।
भोग: 56 भोग चढ़ाएं, जैसे माखन-मिश्री, फल।
रासलीला/दही-हांडी: उत्तर भारत में नाटक, महाराष्ट्र में हांडी फोड़ना।
व्रत खोलना: आधी रात के बाद पारण करें।

कृष्ण जन्माष्टमी के कुछ रोचक तथ्य

* कृष्ण की 16,108 पत्नियां थीं, जो भक्ति के विभिन्न मार्गों का प्रतीक हैं।
* जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ, इसलिए 'रोहिणी अष्टमी' भी कहते हैं।
* दही-हांडी कृष्ण की माखन चोरी की लीला से प्रेरित है, जहां युवा पिरामिड बनाते हैं।
* वैश्विक रूप से, पाकिस्तान के डेरा गाजी खान में मेला लगता था।
* कृष्ण का काला रंग अनंतता का प्रतीक है, जो उन्हें 'श्याम' बनाता है।
* त्योहार में 5,000 साल पुरानी कथा आज भी जीवित है, जो कृष्ण की अमरता दर्शाती है।

धर्मग्रंथों में वर्णित है कि भगवान श्रीकृष्ण 64 कलाओं में पूर्ण निपुण थे, चाहे वह संगीत हो, नृत्य, या अन्य विद्याएँ । सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने इन सभी कलाओं का गहन ज्ञान मात्र 64 दिनों में अपने गुरु संदीपनि मुनि से प्राप्त कर लिया था, जो आज भी अद्वितीय माना जाता है

श्रीकृष्ण की 64 कलाओं का ज्ञान: 64 दिनों में महारत

धर्मग्रंथों में वर्णित है कि भगवान श्रीकृष्ण 64 कलाओं में पूर्ण निपुण थे, चाहे वह संगीत हो, नृत्य, या अन्य विद्याएँ । सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने इन सभी कलाओं का गहन ज्ञान मात्र 64 दिनों में अपने गुरु संदीपनि मुनि से प्राप्त कर लिया था, जो आज भी अद्वितीय माना जाता है ।

जन्माष्टक योग और ज्योतिषीय महत्व

भगवान कृष्ण के जन्म के समय कुछ दुर्लभ ज्योतिषीय योग बने थे, जैसे रोहिणी नक्षत्र और वृषभ राशि में चंद्रमा की स्थिति । ज्योतिष के अनुसार, रोहिणी नक्षत्र का वृषभ राशि में होना चंद्रमा की सबसे शुभ स्थिति मानी जाती है। माना जाता है कि इन योगों के कारण जन्माष्टमी पर की गई पूजा से विशेष फलों की प्राप्ति होती है । यह दर्शाता है कि जन्माष्टमी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि एक खगोलीय घटना भी है, जो ज्योतिष और अध्यात्म का अनूठा संगम है।

जन्माष्टमी से जुड़ी कलाएँ और लोकगीत

जन्माष्टमी ने भारतीय कला, संगीत, नृत्य, और साहित्य को गहरे रूप से प्रभावित किया है । यह त्योहार भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुका है।

संगीत और नृत्य: इस पर्व ने विभिन्न कला रूपों को प्रेरित किया है। इसमें मोहम्मद रफी का "गोविंदा आला रे" और अनुप जलोटा का "अच्युतम केशवं" जैसे लोकप्रिय गीत और भजन शामिल हैं ।

चित्रकला और मूर्तिकला: राजा रवि वर्मा की "द बर्थ ऑफ कृष्णा" जैसी पेंटिंग और सोमनाथपुर के केशव मंदिर की मूर्तिकलाएं, जो कृष्ण की लीलाओं को दर्शाती हैं, इस पर्व के कलात्मक प्रभाव का प्रमाण हैं ।

Written by - Sagar

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2025-08-20 16:47:32

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