
Diwali Complete History in Hindi, significance, story and customs. Festival of Light Guide
दीपावली: अंधकार से प्रकाश की ओर—उत्सव, दर्शन और बहुआयामी इतिहास
दीपावली—केवल दीप नहीं, जीवन का दर्शन
दीपावली, जिसे सामान्यतः दिवाली, प्रकाश उत्सव या प्रकाश का त्योहार कहा जाता है, भारतीय संस्कृति का वह गौरवशाली पर्व है जो वर्षों से न केवल भारत बल्कि दुनिया के कई कोनों में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। 'दीपावली' शब्द संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है: 'दीप' (दीपक) और 'अवली' (पंक्ति), जिसका शाब्दिक अर्थ है 'दीपों की अवली' या दीपों की पंक्ति। यह महापर्व कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है ।
आध्यात्मिक रूप से, यह केवल रोशनी का पर्व नहीं, बल्कि यह 'अन्धकार पर प्रकाश की विजय' को दर्शाता है। यह विजय भौतिक नहीं, बल्कि गहरी दार्शनिक है। यहाँ अंधकार का आशय अज्ञान, भय, दरिद्रता, और जीवन में व्याप्त नकारात्मक शक्तियों से है, जबकि प्रकाश ज्ञान, समृद्धि, आशा, और आंतरिक शांति का प्रतीक है । यह पर्व हमें भीतर से जागृत होने का संदेश देता है, जहाँ हमें बाहरी दीपों के साथ-साथ अपने 'घट' (आंतरिक मन) में भी ज्ञान का दीप प्रज्वलित करना होता है ।
दीपावली का उत्सव एक दिन का नहीं, बल्कि यह पाँच दिनों तक चलने वाला महापर्व है । इसकी शुरुआत धनतेरस (धन त्रयोदशी) से होती है और यह भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को समर्पित भाई दूज (यम द्वितीया) पर समाप्त होता है । यह पंचदिवसीय संरचना मानव जीवन के भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक—सभी पहलुओं को एक सूत्र में पिरोती है।
पौराणिक गाथाओं की अनूठी माला: दीपावली का उद्गम कहाँ से हुआ?
दीपावली का उद्गम किसी एक घटना से नहीं हुआ, बल्कि यह युगों-युगों की विजय गाथाओं का समन्वय है। यह महापर्व त्रेता युग, द्वापर युग और पौराणिक काल की प्रमुख घटनाओं को समाहित करता है, जिससे यह हिंदू धर्म की वैष्णव और शाक्त (शक्ति) दोनों परंपराओं के भीतर एकता स्थापित करता है।
त्रेता युग का राज्याभिषेक: मर्यादा पुरुषोत्तम का आगमन
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, दीपावली की सबसे प्रसिद्ध कथा मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अयोध्या लौटने से जुड़ी है। रावण पर युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद, कार्तिक मास की अमावस्या के दिन ही भगवान राम, माता सीता और भ्राता लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष का वनवास पूर्ण कर अयोध्या लौटे थे । अयोध्यावासियों के लिए यह न केवल राजा का आगमन था, बल्कि धर्म की स्थापना, न्याय की वापसी और एक आदर्श राज्य (राम राज्य) के पुनरागमन का प्रतीक था। अपने प्रिय राजा के स्वागत में, अयोध्यावासियों ने पूरी नगरी को घी के दीपक जलाकर प्रकाशित कर दिया। इस दीपोत्सव ने अमावस की गहन अंधियारी रात को प्रकाशमय कर दिया, और तभी से यह परंपरा चली आ रही है ।
द्वापर युग का शौर्य: नरकासुर वध और मुक्ति
दीपावली से ठीक एक दिन पहले, जिसे नरक चतुर्दशी या छोटी दिवाली कहा जाता है, द्वापर युग की एक महत्वपूर्ण घटना जुड़ी है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, भगवान विष्णु के अवतार वराह और भूदेवी (पृथ्वी) के पुत्र नरकासुर ने अपनी आसुरी शक्तियों से तीनों लोकों में आतंक फैला रखा था । यह अत्याचारी राक्षस 16,000 कन्याओं को बंदी बनाकर उनके सम्मान को दूषित कर रहा था। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध करके उन 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया और बुराई पर अच्छाई की विजय स्थापित की ।
नरकासुर के वध की खुशी में ही नरक चतुर्दशी को बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है । इस दिन तैल स्नान (अभ्यंग स्नान) की प्रथा शुरू हुई, जो शारीरिक और आंतरिक शुद्धता को दर्शाता है । यह अनुष्ठान प्राचीन भारतीय समझ को प्रतिबिंबित करता है कि सुंदरता केवल शारीरिक नहीं है, बल्कि यह स्वच्छता, सकारात्मकता और आंतरिक शांति से उत्पन्न होती है । नरक चतुर्दशी पर दरिद्रता (ज्येष्ठा लक्ष्मी) को विदा करने का भी विधान है ।
क्षीर सागर का वरदान: देवी लक्ष्मी का प्राकट्य
दीपावली की अमावस्या तिथि पर एक और अत्यंत महत्वपूर्ण पौराणिक घटना घटी थी। यह वह दिन है जब क्षीर सागर (दूध का सागर) के मंथन के दौरान, धन-धान्य, वैभव और ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी प्रकट हुई थीं । समुद्र मंथन से उनका प्राकट्य इस पर्व को समृद्धि के स्रोत (वरदान) के आगमन का पर्व बनाता है। इसी दिन देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को पति के रूप में स्वीकार किया था, जिसके कारण इस दिन उनकी विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।
महाभारत का प्रसंग: पांडवों की वापसी
प्राचीन हिंदू महाकाव्य महाभारत के अनुसार, एक अन्य महत्वपूर्ण प्रसंग भी इस त्योहार से जुड़ा है। कुछ परंपराएँ दीपावली को 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद धर्मराज युधिष्ठिर और उनके भाइयों (पांडवों) की हस्तिनापुर वापसी के प्रतीक के रूप में मानती हैं ।
राजा बलि और वामन अवतार
वामन पुराण में एक कथा है कि भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी और अपने तीन पगों में संपूर्ण ब्रह्मांड नाप लिया। राजा बलि की दानवीरता से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें पाताल लोक का राजा बना दिया और वर्ष में एक बार धरती पर आने की अनुमति दी। कुछ क्षेत्रों में दीपावली को राजा बलि के स्वागत के रूप में भी मनाया जाता है।
उत्सव की पंचपर्वी यात्रा: धनतेरस से भाई दूज तक
दीपावली का उत्सव वस्तुतः पाँच दिनों की एक श्रृंखला है, जिसमें प्रत्येक दिन का अपना विशिष्ट धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व है ।
प्रथम दिवस: धन त्रयोदशी (धनतेरस)
दीपावली की शुरुआत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को होती है। इस दिन को धन त्रयोदशी या धनतेरस कहा जाता है। इसका महत्व मुख्य रूप से दो घटनाओं से है: पहला, समुद्र मंथन के दौरान आयुर्वेद के जनक भगवान धन्वंतरि का प्राकट्य । दूसरा, धन के देवता कुबेर जी की पूजा । इस दिन नई वस्तुओं की खरीदारी, विशेषकर धातु के बर्तन, सोना या चांदी खरीदना शुभ माना जाता है, जो घर में स्थायी धन के आगमन का प्रतीक है।
इस दिन 'यम दीपदान' का भी विधान है, जिसके तहत घर के मुख्य द्वार पर या अन्न के ढेर पर एक दीप यमराज के निमित्त जलाया जाता है । इस दीपदान का उद्देश्य अकाल मृत्यु से सुरक्षा प्राप्त करना है, जिसके लिए यमराज को प्रसन्न किया जाता है।
द्वितीय दिवस: नरक चतुर्दशी (छोटी दिवाली/रूप चतुर्दशी)
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी मनाई जाती है, जिसे रूप चतुर्दशी और छोटी दिवाली भी कहते हैं। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, यह दिन भगवान कृष्ण द्वारा नरकासुर के वध और 16,000 कन्याओं की मुक्ति का प्रतीक है ।
इस दिन सूर्योदय से पहले शरीर पर तेल लगाकर स्नान (अभ्यंग स्नान) करना अनिवार्य माना गया है । शरीर पर अपामार्ग (चिड़चिड़ा), जो खेतों और सड़क किनारे आसानी से मिल जाता है, का उपयोग किया जाता है । यह क्रिया शारीरिक स्वच्छता और आंतरिक पवित्रता के प्राचीन मूल्य को दर्शाती है। मान्यता है कि इस दिन सूर्यास्त के बाद शिवलिंग पर रुद्राभिषेक कराने से लक्ष्मी की बड़ी बहन ज्येष्ठा लक्ष्मी, अर्थात दरिद्रता, घर से विदा होने लगती है ।
तृतीय दिवस: महालक्ष्मी पूजन (मुख्य दीपावली)
यह दीपावली महापर्व का मुख्य दिवस है, जो कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है। अमावस्या की यह रात, जो वर्ष की सबसे गहन अंधियारी रात होती है, दीपों की कतारों से प्रकाशित होकर 'अंधकार पर प्रकाश की विजय' को मूर्त रूप देती है।
इस दिन माँ लक्ष्मी, भगवान गणेश, और धन के संरक्षक कुबेर जी की त्रयी पूजा की जाती है । लक्ष्मी पूजन का शुभ मुहूर्त संध्याकालीन प्रदोष काल में शुभ माना गया है । इस समय में लक्ष्मी, गणेश और कुबेर जी का पूजन करने से घर में धन की स्थिरता और व्यापार में वृद्धि होती है ।
पूजा में उपयोग होने वाली सामग्री भी प्रतीकात्मक होती है, जिसमें शुद्धता और समृद्धि के लिए चावल के दाने, मंगल के प्रतीक के रूप में सुपारी, सौभाग्य के लिए हल्दी की गांठ, और विशेष रूप से कुबेर कृपा हेतु रुद्राक्ष का उपयोग किया जाता है ।
चतुर्थ दिवस: गोवर्धन पूजा, अन्नकूट और बलि प्रतिपदा
दीपावली के अगले दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा या अन्नकूट उत्सव मनाया जाता है। इस पर्व का महत्व भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा है । पौराणिक कथा के अनुसार, जब ब्रजवासियों ने भगवान कृष्ण के कहने पर इंद्र देव की पूजा करनी बंद कर दी और गायों की पूजा शुरू की, तो नाराज इंद्र ने पूरे ब्रज को बारिश से जलमग्न कर दिया । तब भगवान कृष्ण ने अपनी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर ब्रजवासियों और उनके पशुधन की रक्षा की ।
यह पर्व गायों की पूजा (गोधन) पर बल देता है। गायों को देवी लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है, क्योंकि जिस प्रकार लक्ष्मी सुख-समृद्धि देती हैं, उसी प्रकार गाय माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं । यह पर्व मनुष्यों को प्राकृतिक विपत्तियों से सावधान रहने की सूचना देता है और अन्न को ब्रह्म मानकर उसकी बर्बादी न करने की चेतावनी भी देता है । इस दिन गोबर से गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बनाकर उसकी पूजा की जाती है और अन्न से बने व्यंजनों (अन्नकूट) का भोग लगाया जाता है।
दक्षिण भारत में इसी दिन को बलि प्रतिपदा के रूप में भी मनाया जाता है, जो दानवीर राजा बलि से जुड़ी कथाओं पर आधारित है ।
पंचम दिवस: यम द्वितीया (भाई दूज)
दीपावली उत्सव का समापन कार्तिक शुक्ल द्वितीया को भाई दूज के रूप में होता है। यह पर्व भाई-बहन के बीच के अटूट प्रेम और स्नेह का प्रतीक है । यह दिन यमराज और उनकी बहन यमुना को समर्पित है ।
इस दिन बहनें अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगाकर उनके लंबे जीवन और कल्याण की कामना करती हैं । आध्यात्मिक रूप से, यह पर्व यह संदेश देता है कि प्रेम ही वह दीप है जो जीवन के रिश्तों को रोशन और स्थायी बनाए रखता है ।
शास्त्र, देवता और उपासना: दीपावली की त्रयी पूजा
दीपावली भारतीय धर्म-ग्रंथों और पुराणों में वर्णित कई महत्वपूर्ण घटनाओं से जुड़ी है। पौराणिक ग्रंथों, जैसे स्कंद पुराण और पद्म पुराण, में नरकासुर की कथा, देवी लक्ष्मी के प्राकट्य और भगवान विष्णु के वामन अवतार द्वारा राजा बलि से तीन पग भूमि मांगने की कथाओं में इस तिथि का महत्व दर्शाया गया है । यह दर्शाता है कि दीपावली की शुरुआत ही एक पौराणिक कथा से हुई थी ।
धन में धर्म का संयोजन: लक्ष्मी-गणेश-कुबेर त्रयी
दीपावली की रात्रि में मुख्य रूप से तीन देवताओं की पूजा का विधान है: माँ लक्ष्मी, भगवान गणेश, और कुबेर जी।
1. माँ लक्ष्मी: धन, वैभव और ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी।
2. भगवान गणेश: इन्हें शुभ और लाभ का प्रतीक माना जाता है। लक्ष्मी पूजा में गणेश जी की पूजा सर्वोपरि होती है, क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि धन में भी धर्म का होना अनिवार्य है । यदि धन के साथ विवेक और बुद्धि (गणेश) का वास न हो, तो वह धन चंचला (अस्थिर) होकर नष्ट हो जाता है । इसलिए, गणेश की पूजा पहले करने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्राप्त धन का उपयोग शुभ, नैतिक और परोपकारी कार्यों में हो।
3. कुबेर जी: देवताओं के कोषाध्यक्ष और धन के संरक्षक । लक्ष्मी जी को शास्त्रों में चंचला कहा गया है, अर्थात वह किसी एक स्थान पर स्थाई रूप से वास नहीं करती हैं । इसलिए, धन के आगमन (लक्ष्मी) के साथ-साथ उसके संरक्षण (कुबेर) के लिए भी पूजा की जाती है। कुबेर जी की पूजा करने से धन की स्थिरता आती है और व्यापार में वृद्धि होती है । कुबेर मंत्र का 108 बार जाप करना और पूजा में रुद्राक्ष रखना उनकी कृपा प्राप्त करने का साधन माना जाता है ।
इस त्रयी पूजा का सार यही है कि धन (अर्थ) और ज्ञान (धर्म/विवेक) का संतुलन ही एक सार्थक दीपावली पूजन को संभव बनाता है ।
शक्ति का पर्व: महानिशा की काली पूजा
दीपावली की अमावस्या तिथि को पूर्वी भारत, विशेषकर पश्चिम बंगाल, ओडिशा और त्रिपुरा में, महाकाली (शक्ति) की उपासना का विशेष विधान है, जिसे काली पूजा कहा जाता है । यह पूजन रात्रि (महानिशा) को किया जाता है ।
देवी काली को महाकाल (शिव) की परमा प्रकृति का अनंत स्वरूप माना जाता है । उनकी उपासना का मुख्य उद्देश्य सभी अशुभ शक्तियों, नकारात्मक ऊर्जाओं और ग्रह दोषों का नाश करना है । जहाँ उत्तरी और पश्चिमी भारत में दीपावली पर माँ लक्ष्मी की सौम्य ऊर्जा का आह्वान होता है, वहीं पूर्वी भारत में अमावस्या की गहन रात में महाकाली की रौद्र शक्ति का आह्वान किया जाता है । दोनों ही पद्धतियां 'अंधकार पर विजय' का संदेश देती हैं—लक्ष्मी अंधकार (गरीबी) को प्रकाश (समृद्धि) में बदलती हैं, जबकि काली देवी अशुभ शक्ति को नष्ट करके विजय प्राप्त करती हैं।
दीपावली का सार्वभौमिक संदेश: अन्य धर्मों में इसकी महत्ता
दीपावली केवल हिन्दू धर्म तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका महत्व भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य प्रमुख धर्मों और समुदायों के लिए भी गहरा है। इन सभी समुदायों में त्योहार का केंद्रीय संदेश 'मुक्ति' (Liberation) और 'अत्याचार पर न्याय' की स्थापना से जुड़ा हुआ है।
सिख धर्म: बंदी छोड़ दिवस—स्वतंत्रता और न्याय
सिख समुदाय द्वारा दीपावली को 'बंदी छोड़ दिवस' (बन्दी छोड़ दिवस) के रूप में मनाया जाता है । यह एक महत्वपूर्ण सिख त्योहार है जो 1619 में मुगल बादशाह जहांगीर की कैद से सिख धर्म के छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद जी, और उनके साथ कैद 52 हिंदू राजाओं की रिहाई का स्मरण करता है ।
कथा के अनुसार, जब जहांगीर ने गुरु हरगोबिंद जी को रिहा करने का आदेश दिया, तो गुरु जी ने यह शर्त रखी कि वे अपने साथ उन 52 राजाओं को भी ले जाएंगे जो उनके वस्त्र (चोला) को पकड़कर किले से बाहर निकल सकते हैं । गुरु जी ने 52 कलियों वाला एक वस्त्र पहना, और सभी राजाओं ने उसे पकड़कर किले से स्वतंत्रता प्राप्त की। यह घटना गुरु हरगोबिंद जी के साहस, बहादुरी और न्याय के लिए लड़ने की भावना का प्रतीक है ।
सिखों के लिए दिवाली इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन (1577 में) अमृतसर में हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) का शिलान्यास हुआ था । बंदी छोड़ दिवस पर गुरुद्वारों को दीपों से सजाया जाता है, रोशनी की सजावट की जाती है, और विशेष कीर्तन व लंगर (सामूहिक भोजन) का आयोजन होता है । यह पर्व स्वतंत्रता, न्याय और मानवाधिकारों के सम्मान का शाश्वत संदेश देता है ।
जैन धर्म: भगवान महावीर का निर्वाण दिवस
जैन परंपरा में दीपावली का अर्थ 'निर्वाण का प्रकाश' है । कार्तिक अमावस्या का यह दिन जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर, भगवान महावीर के देह-त्याग और मोक्ष (केवल ज्ञान) प्राप्त करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है ।
जब भगवान महावीर ने पावापुरी में देह का त्याग किया, तो उस समय देवताओं और मनुष्यों ने मिलकर ज्ञान के प्रकाश को दर्शाने के लिए दीप प्रज्वलित किए। जैन समुदाय आज भी इस दिन आत्मज्ञान के प्रकाश की प्राप्ति का उत्सव मनाता है। यहाँ मुक्ति बाहरी बंधनों से नहीं, बल्कि आत्मा के अंधकार (अज्ञान) को ज्ञान के दीपक से दूर करने से जुड़ी है।
बौद्ध धर्म: करुणा के प्रकाश की ओर (विश्लेषण सहित)
बौद्ध इतिहास में भी दीपावली से जुड़ी कुछ मान्यताएं प्रचलित हैं, हालांकि इन पर विद्वानों में मतभेद रहा है।
सम्राट अशोक का धम्म विजय: कुछ लोग दीपावली को सम्राट अशोक के 'धर्म परिवर्तन' और 84 हजार स्तूपों के अनावरण से जोड़ते हैं, जिसे 'दीपदानोत्सव' कहा गया था । यह घटना युद्ध और हिंसा के अंधकार से करुणा, शांति और धम्म के मार्ग की ओर उनके झुकाव का प्रतीक थी ।
गौतम बुद्ध का कपिलवस्तु आगमन: कुछ अन्य मतों के अनुसार, गौतम बुद्ध संबोधि प्राप्ति के 7वें वर्ष बाद कार्तिक अमावस्या को अपने गृह नगर कपिलवस्तु लौटे थे, जिसके स्वागत में लाखों दीप जलाकर दीपावली मनाई गई थी ।
क्षेत्रीय परंपराओं का गुलदस्ता
काली पूजा (पूर्वी भारत): पश्चिम बंगाल, ओडिशा और त्रिपुरा में दीपावली की रात को महानिशा में काली पूजा की जाती है । इसका मुख्य उद्देश्य नकारात्मक शक्तियों पर विजय प्राप्त करना और अशुभता का नाश करना है । जमशेदपुर जैसे शहरों में इस अवसर पर 100 से अधिक भव्य काली पूजा पंडाल बनाए जाते हैं ।
नरकासुर वध (महाराष्ट्र/कर्नाटक): दक्षिण भारत के कई हिस्सों में, खासकर महाराष्ट्र और कर्नाटक में, नरक चतुर्दशी के दिन नरकासुर के वध की स्मृति में पुतले जलाए जाते हैं और अधर्म पर धर्म की विजय का उत्सव मनाया जाता है ।
बूढ़ी दिवाली (झारखंड): झारखंड में एक अनोखी परंपरा के तहत बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है, जो वृद्धजनों और पूर्वजों के सम्मान में आयोजित की जाती है । यह सामाजिक जुड़ाव और पारिवारिक सौहार्द को बढ़ावा देती है।
बडबडुआ डाका (छत्तीसगढ़): छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में इसे 'भूत प्रेत भगाने वाला दिवस' भी कहा जाता है । इस लोक परंपरा में स्थानीय देवी-देवताओं को भेंट चढ़ाकर और गीत गाकर घर की सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है ।
आधुनिक चिंतन: प्रकाश पर्व और पर्यावरण संरक्षण की चुनौती
21वीं सदी में, दीपावली के उत्सव के सामने सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण संरक्षण की है, विशेष रूप से पटाखों से होने वाला प्रदूषण। दीपावली का मूल दर्शन शुद्धता और प्रकाश (ज्ञान) पर केंद्रित है । हालांकि, आधुनिक समय में पटाखों के व्यापक उपयोग ने इस पर्व के मूल संदेश के विपरीत, वायु प्रदूषण का संकट खड़ा कर दिया है।
पटाखों का इतिहास 9वीं शताब्दी में चीन में बारूद के आविष्कार से जुड़ा है । आज भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा पटाखा उत्पादक देश है । दीपावली के बाद, खासकर उत्तर और मध्य भारत में कोहरे के मौसम के कारण, प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ जाता है, क्योंकि पटाखे हवा में धूल और जहरीले रसायन मिला देते हैं । प्रदूषक पीएम 2.5 का सूचकांक कई शहरों में 462 तक पहुँच जाता है, जबकि सुरक्षित स्तर 50 से भी कम होना चाहिए । यह प्रदूषण श्वसन संबंधी बीमारियों और असमय मौतों में वृद्धि का कारण बनता है ।
परंपरा और प्रगति का विरोधाभास:
पटाखों का उपयोग करके खुशी व्यक्त करने की वर्तमान संस्कृति एक गहरा नैतिक विरोधाभास उत्पन्न करती है। एक ओर, त्योहार का उद्देश्य अंधकार पर विजय प्राप्त करना है, लेकिन दूसरी ओर, जहरीले धुएं से वायुमंडल में अंधेरा और स्वास्थ्य संकट उत्पन्न हो रहा है । यह विरोधाभास हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या यह सच्चा उत्सव है?
प्रदूषण की बढ़ती समस्या के कारण, सरकारें और न्यायपालिका हस्तक्षेप कर रहे हैं। दिल्ली सहित कई राज्यों ने पटाखों के उत्पादन, बिक्री और आतिशबाजी पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगा दिया है । कुछ राज्यों ने केवल निर्धारित समय में 'हरित पटाखे' जलाने की अनुमति दी है ।
इस परिस्थिति में, दीपावली का वास्तविक महत्व मिट्टी के दीयों को प्रज्वलित करने और भीतर की खुशी को बिना किसी पर्यावरणीय क्षति के साझा करने में निहित है । हमें यह समझना होगा कि अंधकार पर विजय का अर्थ केवल घरों में रोशनी करना नहीं, बल्कि अपने विवेक का उपयोग करके एक स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण सुनिश्चित करना भी है।
दीपोत्सव का शाश्वत आह्वान
दीपावली भारतीय संस्कृति का वह शाश्वत आह्वान है जो हमें हर वर्ष अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर बढ़ने का संदेश देता है। यह पर्व जीवन के भौतिक पक्ष (धनतेरस और लक्ष्मी पूजन) को आध्यात्मिक पक्ष (ज्ञान और मुक्ति) और सामाजिक पक्ष (भाई दूज और गोवर्धन पूजा) के साथ सामंजस्य बिठाने की कला सिखाता है।
यह पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि स्वतंत्रता, न्याय और मुक्ति का एक साझा मानवीय उत्सव है—चाहे वह श्रीराम द्वारा रावण पर विजय हो, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा 52 राजाओं को कारागार से मुक्त करना हो, या भगवान महावीर द्वारा मोक्ष प्राप्त करना हो। इन सभी घटनाओं में मुक्ति और न्याय की केंद्रीय थीम निहित है।
आज, जब हम आधुनिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, तो हमें दीपावली की परंपरा का निर्वाह करते समय विवेकशील होना होगा। धन और समृद्धि का पूजन तभी सार्थक होगा जब उसमें धर्म (नैतिकता) का समावेश हो, और उत्सव तभी पूर्ण होगा जब वह पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य की कीमत पर न हो।
दीपावली हमें याद दिलाती है कि हमें केवल घर में ही नहीं, बल्कि 'घट' (अपने आंतरिक मन) में भी दीये जलाने चाहिए, ताकि हमारे जीवन में सुख, समृद्धि और आनंद के साथ-साथ ज्ञान और विवेक का प्रकाश भी सदैव बना रहे। यह महापर्व निरंतर आत्म-जागृति और करुणा के प्रकाश की ओर अग्रसर होने का एक महान सांस्कृतिक संकल्प है।
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