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गौतम बुद्ध: जन्म से महापरिनिर्वाण तक की कहानी 

गौतम बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक, एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने न केवल अपने जीवन को बल्कि लाखों लोगों के जीवन को भी बदल दिया। उनका जीवन, चमत्कारी जन्म से लेकर महापरिनिर्वाण और उसके बाद तक, प्रेरणा और ज्ञान का स्रोत रहा है। आइए, उनके जीवन की इस असाधारण यात्रा पर विस्तार से विचार करें।

महामाया का स्वप्न और सिद्धार्थ का जन्म (Mahamaya ke Swapn aur Siddharth ka Janm)

रानी महामाया ने एक रात एक अद्भुत स्वप्न देखा। उन्होंने देखा कि एक सफेद हाथी, जिसके छह दांत थे, आकाश से उतरकर उनकी दाहिनी कोख में प्रवेश कर रहा है । इस स्वप्न की व्याख्या विद्वानों ने यह कहकर की कि रानी एक ऐसे बालक को जन्म देगी जो या तो एक महान विश्व शासक बनेगा या फिर एक प्रबुद्ध बुद्ध । स्वप्न में रानी को चार देवों द्वारा हिमालय पर्वत पर ले जाए जाने और वहाँ एक झील में स्नान कराए जाने का भी वर्णन मिलता है । राजा शुद्धोधन और रानी माया दोनों इस स्वप्न से अत्यंत चकित थे और उन्होंने अपने दरबार के विद्वानों को बुलाकर इसका अर्थ जानना चाहा । बौद्ध कला में रानी माया के इस स्वप्न के दृश्य को अक्सर दर्शाया जाता है, जो इस घटना की सांस्कृतिक और धार्मिक महत्ता को दर्शाता है ।

लगभग 623 ईसा पूर्व, शाक्य गणराज्य के राजा शुद्धोधन और रानी महामाया के घर लुम्बिनी (जो अब नेपाल में स्थित है) में सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ । रानी महामाया कोलीय वंश की राजकुमारी थीं । जन्म के समय, रानी माया कपिलवस्तु से अपने मायके देवदह जा रही थीं । रास्ते में, उन्होंने लुम्बिनी वन में एक साल वृक्ष के नीचे खड़े होकर बालक को जन्म दिया । किंवदंती है कि जन्म के तुरंत बाद, शिशु सिद्धार्थ ने सात कदम चले और प्रत्येक कदम पर कमल के फूल खिल उठे । दुर्भाग्य से, उनकी माता का जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया, और उनका पालन-पोषण उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया । बुद्ध का जन्मस्थान, लुम्बिनी, बौद्धों के लिए एक अत्यंत पवित्र स्थान है, जिसका ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व है । जन्म से जुड़ी ये किंवदंतियाँ उनकी असाधारण प्रकृति और उनके भविष्य के महत्व की ओर इशारा करती हैं। माता की मृत्यु और मौसी द्वारा उनका पालन-पोषण उनके प्रारंभिक जीवन के अनुभवों को आकार देने में महत्वपूर्ण कारक थे।   
राजा शुद्धोधन के दो प्रमुख पत्नियाँ थीं-महामाया देवी और गौतमीमहामाया देवी से उनका एक पुत्र था, जो सिद्धार्थ गौतम थे, बाद में वे बुद्ध बने। गौतमी से उनका एक पुत्र नंद था और एक पुत्री सुंदरी नंदा थी।
सिद्धार्थ गौतम शुद्धोधन के बड़े पुत्र थे, जबकि नंद उनके दूसरे पुत्र थे। इस प्रकार गौतम बुद्ध शुद्धोधन और महामाया के एकमात्र पुत्र थे, लेकिन शुद्धोधन के और भी बच्चे गौतमी से थे।

राजकुमार सिद्धार्थ का प्रारंभिक जीवन (Rajkumar Siddharth ka Prarambhik Jeevan)

राजकुमार सिद्धार्थ का बचपन कपिलवस्तु के राजसी महल में अत्यधिक विलासिता और आराम के बीच बीता । उनके पिता, राजा शुद्धोधन, ने उन्हें सांसारिक दुखों और कष्टों से बचाने का हर संभव प्रयास किया । सिद्धार्थ ने सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ तलवारबाजी और तीरंदाजी जैसे व्यावहारिक कौशल में भी शिक्षा प्राप्त की । बचपन से ही, राजकुमार सिद्धार्थ सभी जीवित प्राणियों के प्रति अत्यंत दयालु थे । एक प्रसिद्ध घटना में, उन्होंने एक घायल पक्षी की मदद की, जो उनके करुणापूर्ण स्वभाव का प्रमाण है । उनके आराम के लिए, राजा शुद्धोधन ने तीन भव्य महल बनवाए थे - एक गर्मी के लिए, एक सर्दी के लिए और एक बरसात के मौसम के लिए । राजकुमार सिद्धार्थ का यह प्रारंभिक जीवन ऐश्वर्य और संरक्षण में व्यतीत हुआ, फिर भी उनकी जिज्ञासु और चिंतनशील प्रकृति उन्हें संतुष्ट नहीं कर सकी। सांसारिक दुखों से उनका अलगाव उनके बाद के वैराग्य के निर्णय का एक महत्वपूर्ण कारण बना।   

16 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह उनकी चचेरी बहन यशोधरा से हुआ। यशोधरा सुंदर, बुद्धिमान और शाक्य वंश की राजकुमारी थीं। उस समय के रिवाज के अनुसार यह विवाह उनके परिवारों ने तय किया था। विवाह के कुछ वर्षों बाद उनके एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम राहुल रखा गया।

29 वर्ष की आयु में, राजकुमार सिद्धार्थ ने महल के बाहर चार दृश्य देखे, जिन्होंने उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया: उन्होंने एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जो कमजोर और झुका हुआ था, एक बीमार व्यक्ति को देखा जो दर्द से कराह रहा था, एक शव को देखा जिसे अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था, और एक शांत तपस्वी को देखा जो आध्यात्मिक शांति की तलाश में था । इन दृश्यों ने उन्हें मानव जीवन की क्षणभंगुरता और दुख की अटल वास्तविकता का गहरा एहसास कराया । विशेष रूप से तपस्वी के दर्शन ने उन्हें सांसारिक दुखों से मुक्ति का मार्ग खोजने की तीव्र इच्छा से भर दिया । इन चार दृश्यों का राजकुमार सिद्धार्थ के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिससे उन्होंने अपने विलासितापूर्ण जीवन का त्याग करने और मानव दुख के कारणों और निवारण की खोज करने का दृढ़ संकल्प लिया। इन दृश्यों ने बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों - दुख, दुख का कारण, दुख का अंत और दुख के अंत का मार्ग - की नींव रखी ।   

इन गहन अनुभवों के बाद, 29 वर्ष की आयु में, राजकुमार सिद्धार्थ ने चुपचाप अपने राजसी महल को त्याग दिया, एक घटना जिसे बौद्ध इतिहास में 'महानिष्क्रमण' कहा जाता है । उन्होंने अपने सभी शाही वस्त्र और आभूषण त्याग दिए और एक तपस्वी का साधारण जीवन अपनाया । उन्होंने अपने वफादार सारथी चन्ना और अपने प्रिय घोड़े कंथक को वापस महल भेज दिया, इस प्रकार सांसारिक बंधनों से खुद को मुक्त कर लिया । राजकुमार सिद्धार्थ का यह गृह त्याग एक निर्णायक क्षण था, जो सांसारिक सुखों के त्याग और आध्यात्मिक मुक्ति की गहन खोज का प्रतीक था। यह घटना बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई।   

ज्ञान की खोज में: संन्यास और बुद्धत्व की प्राप्ति (Gyan ki Khoj Mein: Sanyas aur Buddhatva ki Prapti)

अपने गृह त्याग के बाद, सिद्धार्थ ने ज्ञान की खोज में एक तपस्यापूर्ण जीवन जीना शुरू कर दिया। उन्होंने उस समय के कई प्रसिद्ध संतों और शिक्षकों से मुलाकात की और उनसे ध्यान की विभिन्न तकनीकों का अध्ययन किया । उन्होंने आलार कलाम और उद्दक रामपुत्त जैसे प्रतिष्ठित गुरुओं के अधीन योगिक अनुशासन और कठोर तपस्या का अभ्यास किया । छह वर्षों तक, सिद्धार्थ ने अत्यंत कठोर तपस्या की, जिसमें भोजन और जल का लगभग पूर्ण त्याग भी शामिल था । इन वर्षों में, उन्होंने शरीर को कष्ट देकर मन को वश में करने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें कोई स्थायी शांति या मुक्ति नहीं मिली। सिद्धार्थ ने विभिन्न आध्यात्मिक मार्गों का अनुभव किया, लेकिन उन्हें किसी से भी सच्ची संतुष्टि नहीं मिली, जिससे उन्हें यह गहरा एहसास हुआ कि चरम तपस्या स्वयं मुक्ति का सच्चा मार्ग नहीं है।   

जब वे अत्यधिक उपवास और तपस्या के कारण मृत्यु के करीब पहुँच गए तो एक दिन, नदी के किनारे बैठे हुए, उन्होंने एक संगीतकार को अपनी वीणा के तार को संतुलित करते सुना। संगीतकार ने कहा, "तार बहुत कड़ा हो तो टूटेगा, बहुत ढीला हो तो बजेगा नहीं।" यह सुनकर सिद्धार्थ को "मध्यम मार्ग" की प्रेरणा मिली—न तो अति भोग और न ही अति त्याग। तो सिद्धार्थ ने एक दिन एक चरवाहा लड़की सुजाता से चावल की खीर स्वीकार की । इस भोजन को ग्रहण करने के बाद, उन्होंने महसूस किया कि शारीरिक तपस्या आध्यात्मिक मुक्ति का एकमात्र साधन नहीं है, और उन्होंने भोग और तपस्या के दो चरमों के बीच एक 'मध्यम मार्ग' का अनुसरण करने का निर्णय लिया । उनके पांच साथी तपस्वी, जो उनकी कठोर तपस्या में उनके साथ थे, उन्हें छोड़कर चले गए क्योंकि उन्होंने तपस्या छोड़ दी थी । मध्यम मार्ग की खोज बौद्ध धर्म का एक केंद्रीय सिद्धांत बन गया, जो भोग और तपस्या के चरमों से बचने का एक संतुलित और व्यावहारिक मार्ग प्रदान करता है।   

मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए, सिद्धार्थ बोधगया (बिहार, भारत) में एक पीपल के पेड़ (जिसे अब बोधि वृक्ष कहा जाता है) के नीचे ध्यान करने बैठे और उन्होंने तब तक नहीं उठने का दृढ़ संकल्प लिया जब तक कि उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त न हो जाए । इस स्थान पर, उन्होंने मार, प्रलोभनों और भ्रमों के देवता, की नकारात्मक शक्तियों का सामना किया और अपनी दृढ़ संकल्प और प्रज्ञा से उन्हें पराजित किया । 49 दिनों की गहन साधना के बाद, 35 वर्ष की आयु में, सिद्धार्थ ने पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया और बुद्ध ('जागृत व्यक्ति' या 'प्रबुद्ध व्यक्ति') बन गए । इस ज्ञानोदय के साथ, उन्होंने यह भी महसूस किया कि सभी प्राणियों का सार बुद्धत्व है, लेकिन वे अज्ञानता और तृष्णा के कारण दुखी हैं । बोधि वृक्ष बौद्ध धर्म में ज्ञानोदय और बुद्धत्व का पवित्र प्रतीक बन गया । बुद्ध का ज्ञानोदय बौद्ध धर्म के इतिहास में एक केंद्रीय और परिवर्तनकारी घटना थी।   

बुद्धत्व के बाद: धर्म का प्रसार और यात्राएं (Buddhatva ke Baad: Dharma ka Prasar aur Yatrayen)

ज्ञानोदय के बाद, बुद्ध ने बोधि वृक्ष के नीचे सात 7 सप्ताह बिताए, जो विभिन्न महत्वपूर्ण घटनाओं से चिह्नित थे । पहले सप्ताह में, उन्होंने बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर मुक्ति के आनंद का अनुभव किया और प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत पर गहन चिंतन किया । दूसरे सप्ताह में, उन्होंने उस वृक्ष के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उसे एकटक देखा जिसने उन्हें आश्रय दिया था । तीसरे सप्ताह में, बुद्ध ने एक स्वर्ण पुल का निर्माण किया और उस पर चलकर देवों को अपनी प्राप्ति का प्रमाण दिया । चौथे सप्ताह में, उन्होंने एक रत्न कक्ष बनाया और अभिधर्म (विस्तृत शिक्षा) पर ध्यान केंद्रित किया; इस दौरान उनके शरीर से छह रंगों की किरणें निकलीं । पांचवें सप्ताह में, उन्होंने एक बरगद के पेड़ के नीचे ध्यान किया, जहाँ तीन सुंदर लड़कियों ने उनकी साधना भंग करने का प्रयास किया । छठे सप्ताह में, उन्होंने मुचलिंद पेड़ के नीचे ध्यान किया, जहाँ एक नागराज ने उन्हें वर्षा से बचाया । अंत में, सातवें सप्ताह में, उन्होंने राजायतन वृक्ष के नीचे ध्यान किया और तपस्सु और भल्लिक नामक दो व्यापारियों को अपना पहला उपदेश दिया । ज्ञानोदय के बाद के ये सात सप्ताह बुद्ध की असाधारण आध्यात्मिक शक्ति और उनके पहले शिष्यों के साथ संबंध की शुरुआत को दर्शाते हैं। इन घटनाओं का गहरा प्रतीकात्मक महत्व है और इन्हें बौद्ध कला में अक्सर चित्रित किया जाता है ।   

ज्ञानोदय के सात सप्ताह बाद, बुद्ध ने सारनाथ (वाराणसी के पास) के हिरण पार्क में अपना पहला उपदेश दिया । यह उपदेश 'धर्मचक्रप्रवर्तन सूत्र' के रूप में जाना जाता है, जिसमें उन्होंने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग के बारे में बताया । उनके पहले शिष्य उनके पांच पूर्व साथी तपस्वी थे (कोण्डन्न, वप्पा, भद्रिय, महानाम, और अश्वजित) । इस घटना के साथ ही बौद्ध संघ (भिक्षुओं और ननों का समुदाय) की स्थापना हुई । सारनाथ में बुद्ध का पहला उपदेश बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने धर्म के पहिये को घुमाया और बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों को स्थापित किया। संघ की स्थापना ने बुद्ध के उपदेशों को फैलाने और संरक्षित करने के लिए एक संगठित समुदाय प्रदान किया।  इसमें उन्होंने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग का प्रतिपादन किया:
दुख: संसार दुखमय है।
दुख समुदय: दुख का कारण तृष्णा (लालसा) है।
दुख निरोध: तृष्णा का त्याग करने से दुख का अंत होता है।
दुख निरोध गामिनी प्रतिपदा: अष्टांगिक मार्ग इसका समाधान है।
अष्टांगिक मार्ग में सम्यक दृष्टि, संकल्प, वाणी, कर्म, आजीविका, प्रयास, स्मृति और समाधि शामिल हैं। बुद्ध ने करुणा, ध्यान और अनासक्ति पर भी जोर दिया।

ज्ञानोदय के बाद, बुद्ध ने अगले 45 वर्षों तक पूर्वोत्तर भारत के गंगा के मैदानों में व्यापक रूप से यात्रा की, विभिन्न जातियों और वर्गों के लोगों को उपदेश दिया और कई अनुयायियों को अपने संघ में दीक्षित किया । उन्होंने श्रावस्ती, राजगृह और वैशाली जैसे प्रमुख शहरों के पास अधिक समय बिताया । बुद्ध ने अपने शिष्यों को भी पूरे भारत में अपने ज्ञान और शिक्षाओं को फैलाने के लिए भेजा । बौद्ध परंपरा यह भी मानती है कि बुद्ध ने अपने जीवनकाल में तीन बार श्रीलंका की यात्रा की थी । बुद्ध की इन यात्राओं ने उनके उपदेशों को दूर-दूर तक फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने सभी सामाजिक स्तरों के लोगों को शिक्षा दी और एक ऐसा समुदाय बनाया जो उनके निधन के बाद भी उनके संदेश को आगे बढ़ा सके।

बुद्ध के प्रमुख शिष्य और उनका योगदान (Buddha ke Pramukh Shishya aur Unka Yogdaan)

बुद्ध के कई प्रमुख शिष्य थे जिन्होंने उनके धर्म के प्रसार और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें से दस विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं :   
सारिपुत्त: अपनी असाधारण प्रज्ञा के लिए जाने जाते थे और उन्हें 'धर्म के सेनापति' की उपाधि दी गई थी ।   
मोग्गल्लान: अपनी अलौकिक शक्तियों के लिए प्रसिद्ध थे ।   
महाकश्यप: कठोर तपस्या के लिए जाने जाते थे और बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद पहली बौद्ध संगीति के अध्यक्ष बने ।   
आनंद: बुद्ध के प्रिय शिष्य और उनकी सभी शिक्षाओं के श्रोता के रूप में विख्यात थे। उनकी असाधारण स्मृति ने उन्हें पहली बौद्ध संगीति में सुत्त पिटक का पाठ करने में सक्षम बनाया ।   
अनुरुद्ध: अपनी दिव्य दृष्टि के लिए जाने जाते थे ।   
उपालि: मठवासी अनुशासन (विनय) के ज्ञाता थे और उन्होंने पहली बौद्ध संगीति में विनय पिटक का पाठ किया ।   
राहुल: बुद्ध के पुत्र थे और सीखने में अपनी उत्सुकता के लिए जाने जाते थे ।   
कात्यायन: बुद्ध की शिक्षाओं को फैलाने में अपनी कुशलता के लिए जाने जाते थे ।   
पूर्ण मैत्रायणीपुत्र: धर्म के उपदेश में अपनी दक्षता के लिए प्रसिद्ध थे ।   
सुभूति: शून्यता की शिक्षा को समझने में अपनी गहराई और दान देने में उदारता के लिए जाने जाते थे । बुद्ध के इन प्रमुख शिष्यों ने उनके उपदेशों को फैलाने और बौद्ध धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रत्येक शिष्य की अपनी विशिष्ट क्षमता और योगदान था, जिसने प्रारंभिक बौद्ध समुदाय को समृद्ध किया।

 महापरिनिर्वाण और अवशेषों का वितरण (Mahaparinirvana aur Avasheshon ka Vitaran)

80 वर्ष की आयु में, बुद्ध अपनी अंतिम यात्रा पर कुशीनगर (उत्तर प्रदेश, भारत) पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिया । उन्होंने अपने शिष्यों को स्वयं पर भरोसा रखने और मुक्ति के लिए लगन से प्रयास करने की सलाह दी । वैशाख पूर्णिमा के दिन, दो साल वृक्षों के बीच, बुद्ध ने महापरिनिर्वाण (भौतिक शरीर से अंतिम मुक्ति) प्राप्त किया । कहा जाता है कि उनकी मृत्यु के समय एक महान भूकंप आया था । बुद्ध का महापरिनिर्वाण बौद्धों के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है, जो जीवन के चक्र से अंतिम मुक्ति और परम शांति की प्राप्ति का प्रतीक है। उनके अंतिम उपदेश उनके अनुयायियों के लिए आज भी मार्गदर्शक बने हुए हैं।   

कुशीनगर की यात्रा के दौरान, बुद्ध ने चुंद नामक एक लोहार द्वारा अर्पित भोजन ग्रहण किया, जिसके बाद वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गए । कुछ स्रोतों के अनुसार, इस भोजन में मशरूम या सूअर का मांस मिला हुआ था । अपनी बीमारी के बावजूद, बुद्ध ने यात्रा करना और उपदेश देना जारी रखा, जो उनके करुणा और समर्पण का प्रमाण है । बुद्ध ने अपने शिष्यों को अपना अंतिम उपदेश दिया, जिसमें उन्होंने सभी संयुक्त चीजों की अनित्यता पर जोर दिया और उन्हें लगन से अपनी मुक्ति के लिए प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित किया । उन्होंने यह भी सलाह दी कि उनके द्वारा सिखाए गए धर्म और अनुशासन को ही अपना शिक्षक मानें । बुद्ध का यह अंतिम उपदेश उनके मुख्य शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है और उनके अनुयायियों के लिए एक स्थायी मार्गदर्शन प्रदान करता है।   

बुद्ध के शरीर का कुशीनगर में राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया । उनकी अस्थियों (अवशेषों) को एकत्र किया गया और आठ भागों में विभाजित किया गया, जिन्हें विभिन्न गणराज्यों और राजाओं को वितरित किया गया, जिन्होंने उन पर स्तूपों का निर्माण करवाया । ये स्तूप बुद्ध की उपस्थिति और उनकी शिक्षाओं का प्रतीक बन गए । बुद्ध के अवशेषों का यह वितरण बौद्ध धर्म के प्रसार और विभिन्न क्षेत्रों में बुद्ध की स्मृति को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण कदम था। ये स्तूप बाद में बौद्ध तीर्थ स्थलों के रूप में विकसित हुए, जो आज भी लाखों लोगों को प्रेरणा देते हैं।   

बुद्ध के बाद: बौद्ध धर्म का विकास और बौद्ध ग्रंथ (Buddha ke Baad: Bauddh Dharm ka Vikas aur Buddha Granth)

बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद, उनके उपदेशों और मठवासी नियमों को संरक्षित करने के लिए राजगृह (आधुनिक राजगीर) में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया । इस संगीति की अध्यक्षता महाकश्यप ने की । आनंद ने सुत्त पिटक (बुद्ध के उपदेश) का पाठ किया और उपालि ने विनय पिटक (मठवासी अनुशासन के नियम) का पाठ किया । इस संगीति में त्रिपिटक (तीन पिटक) - विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक (दार्शनिक विश्लेषण) - का संकलन पूरा हुआ । प्रथम बौद्ध संगीति बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने बुद्ध के उपदेशों को व्यवस्थित और संरक्षित करने की नींव रखी। त्रिपिटक बौद्ध धर्म का आधिकारिक ग्रंथ बन गया।   

बुद्ध के उपदेशों को शुरू में मौखिक परंपरा के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी प्रसारित किया गया । लगभग 29 ईसा पूर्व श्रीलंका में राजा वलागंबा के संरक्षण में इन्हें पहली बार ताड़ के पत्तों पर लिखा गया । मौखिक परंपरा ने बुद्ध के उपदेशों की सटीकता और निरंतरता सुनिश्चित की, जबकि लेखन ने उन्हें भविष्य की पीढ़ियों के लिए संरक्षित किया।   

बुद्ध की मृत्यु के बाद, बौद्ध धर्म भारत से मध्य, पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के विभिन्न देशों में तेजी से फैला । सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया और इसके प्रसार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । समय के साथ, बौद्ध धर्म विभिन्न परंपराओं और प्रथाओं में विकसित हुआ, जिनमें थेरवाद, महायान और वज्रयान प्रमुख हैं । बुद्ध की मृत्यु के बाद बौद्ध धर्म का प्रसार एक लंबी और जटिल प्रक्रिया थी, जो विभिन्न सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभावों से आकार लेती रही।  



Written by - buddha-biography

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2025-05-13 19:04:53

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