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Kajri Song: Sawan, Bhado and Barsaat Songs Detailed History of Kajri

कजरी: सावन की फुहारों में भीगे लोकगीत

भारत की लोक संगीत परंपरा एक बहुरंगी चादर की तरह है, जिसमें हर रंग एक विशेष कहानी कहता है। इस चादर का एक ऐसा ही मनमोहक रंग है कजरी, जो मुख्य रूप से भारत के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में, मानसून के मौसम में सुनाई देता है । यह मधुर लोकगीत वर्षा ऋतु के आगमन, विशेष रूप से सावन और भादो (जिसे बारिश का मौसम भी कहा जाता है) के हिंदू महीनों के दौरान गाया जाता है । कजरी के गीतों में अक्सर प्रेम, विरह, प्रकृति का सौंदर्य और वर्षा ऋतु से जुड़ी भावनाओं का सुंदर चित्रण होता है । यह लोक संगीत की एक ऐसी धारा है जो अपनी उत्पत्ति, इतिहास, सांस्कृतिक महत्व और वर्तमान स्थिति के कारण आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई है। इस लेख में हम कजरी की इसी अनूठी दुनिया में गहराई से उतरेंगे।

कजरी का जन्म: भोजपुरी धरती की सौंधी महक

कजरी की परंपरा की जड़ें भोजपुरी क्षेत्र में गहरी जमी हुई हैं । उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर जिला कजरी का जन्मस्थान माना जाता है, और यह विश्वास व्यापक रूप से फैला हुआ है । इस लोकगीत की उत्पत्ति से जुड़ी एक सुंदर लोककथा भी प्रचलित है। कहा जाता है कि कांटित नरेश की पुत्री कजरी अपने पति से बहुत प्रेम करती थी, लेकिन दुर्भाग्यवश वे कभी मिल नहीं सके। जब मानसून आया और कजरी अपने पति से मिलने में असमर्थ रही, तो विरह की पीड़ा असहनीय हो गई। उसने काजल देवी (कहीं-कहीं कजमल देवी के रूप में भी उल्लेखित) के चरणों में रोते हुए गाना शुरू कर दिया। माना जाता है कि इन्हीं करुण पुकारों और गीतों ने लोकप्रिय कजरी गीतों का रूप ले लिया ।   

कजरी शब्द की व्युत्पत्ति भोजपुरी शब्द "कजरा" या "काजल" से मानी जाती है । काजल, जो आंखों में लगाया जाता है, काले रंग का होता है और यह मानसून के काले बादलों का प्रतीक है। इस प्रकार, कजरी का नाम सीधे तौर पर वर्षा ऋतु के बादलों से जुड़ा हुआ है। कुछ विद्वान कजरी की उत्पत्ति को पुराणों से भी जोड़ते हैं। ऐसा माना जाता है कि भविष्य पुराण में हरियाली तीज के अनुष्ठानों के संबंध में कजरी का उल्लेख मिलता है, जिसमें रात भर गीत गाने का विधान है । इसके अतिरिक्त, कुछ शोधकर्ता इसकी उत्पत्ति शक्ति पूजा या गौरी पूजा से जोड़ते हैं, जो सावन के महीने में मनाया जाने वाला वसंत ऋतु का फसल उत्सव है । कजरी के कई गीतों में भगवान कृष्ण का उल्लेख भी मिलता है, जो वैष्णव भक्ति संगीत के साथ इसके घनिष्ठ संबंध को दर्शाता है । बनारस घराने के संगीतकारों ने कजरी की इस लोक परंपरा को बनाए रखा और इसे शास्त्रीय संगीत के दायरे में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया । कजरी आसपास के अवधी भाषी क्षेत्रों में भी खूब गाई जाती है ।   

कजरी की उत्पत्ति की पड़ताल करने पर लोककथाओं, भाषा, और संभावित प्राचीन धार्मिक संबंधों का एक अद्भुत संगम दिखाई देता है। काजल शब्द से जुड़ाव मानसून के दृश्य पहलू को दर्शाता है, जबकि लोककथा एक व्यक्तिगत और भावनात्मक जुड़ाव प्रदान करती है। विद्वानों द्वारा प्राचीन ग्रंथों और धार्मिक प्रथाओं का उल्लेख एक लंबे ऐतिहासिक और संभावित रूप से अनुष्ठानिक पृष्ठभूमि की ओर इशारा करता है। ये सभी पहलू मिलकर कजरी की उत्पत्ति को एक बहुआयामी रूप देते हैं, जो मानसून के मौसम और स्थानीय मान्यताओं के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा, बनारस घराने द्वारा कजरी को अर्ध-शास्त्रीय रूप में विकसित करना लोक परंपराओं और भारत के शास्त्रीय संगीत के बीच गतिशील अंतरक्रिया को दर्शाता है। यह संगीत के विकास की एक प्रक्रिया है जहां लोक धुनों को शास्त्रीय परंपराओं के ढांचे के भीतर परिष्कृत और संरचित किया जाता है, जिससे उनकी अपील व्यापक होती है और वे अधिक औपचारिक संगीत प्रणाली के भीतर संरक्षित होते हैं।

सावन और भादो: जब कजरी छेड़ती है मन के तार

कजरी पारंपरिक रूप से वर्षा ऋतु में गाई जाती है, विशेष रूप से जून के अंत से सितंबर तक, जो हिंदू महीनों सावन और भादो (बारिश) के अनुरूप है । यह वह समय होता है जब चारों ओर हरी-भरी हरियाली छा जाती है और कृषि कार्य फिर से शुरू हो जाता है । ऐसा माना जाता है कि बारिश के कारण होने वाली उदासी और निराशा महिलाओं के लिए विशेष रूप से विरह और अकेलेपन की भावनाओं को तीव्र करती है, खासकर उन महिलाओं के लिए जिनके प्रियजन दूर होते हैं । बारिश "परदेशी सैयां" (दूर देशों में रहने वाले प्रेमी) के लिए तड़प पैदा करती है, और गीतों में अक्सर कौवे (कागा) को संदेशवाहक के रूप में चित्रित किया जाता है । इस दौरान हरियाली तीज का त्योहार भी मनाया जाता है, जिसका भी कजरी से गहरा संबंध है । सावन के महीने में नवविवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र और कल्याण के लिए मंगला गौरी पूजा करती हैं, और कजरी के गीतों में इसका भी उल्लेख मिलता है । कजरी का नाम भी मानसून के काले बादलों के रंग से जुड़ा है, जो काजल के समान दिखते हैं ।   

कजरी का गायन कृषि चक्र और मानसून के कारण बढ़ी हुई भावनात्मक संवेदनशीलता के साथ मेल खाता है। यह इंगित करता है कि संगीत एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करता है जो जीवन की व्यावहारिकताओं को व्यक्तिगत भावनाओं के साथ जोड़ता है। मानसून का मौसम, जो भोजपुरी क्षेत्र में कृषि के लिए महत्वपूर्ण है, कजरी के गायन का समय है। साथ ही, गीतों में विरह और तड़प की भावनात्मक थीम पर जोर दिया जाता है, जो बारिश के माहौल से और तीव्र हो जाती हैं। यह दोहरा जुड़ाव दर्शाता है कि कजरी न केवल एक कलात्मक रूप है, बल्कि प्रकृति की लय और उससे जुड़े मानवीय अनुभवों के प्रति एक सांस्कृतिक प्रतिक्रिया भी है। सावन-भादो की अवधि के भीतर उल्लिखित विशिष्ट अनुष्ठान और त्यौहार (हरियाली तीज, मंगला गौरी पूजा) कजरी के प्रदर्शन और महत्व के लिए एक सामाजिक और धार्मिक संदर्भ प्रदान करते हैं। कजरी विशिष्ट त्योहारों और मानसून से संबंधित अवलोकनों के दौरान गाई जाती है। यह सुझाव देता है कि कजरी समुदाय के सामाजिक ताने-बाने और धार्मिक प्रथाओं में एकीकृत है, इन समारोहों में एक भूमिका निभा रही है और उनके सांस्कृतिक अर्थ को मजबूत कर रही है।

विरह और मिलन: महिलाओं का अपने प्रियजनों से बिछड़ना - माना जाता है कि बारिश का उदास माहौल उनकी अकेलेपन की भावना को तीव्र करता है। कुछ गीत प्रेमी के साथ मिलन की खुशी व्यक्त करते हैं, जबकि अन्य बरसात के सुंदर हरे-भरे परिदृश्य के पृष्ठभूमि पर प्रेमी से अलगाव का दर्द व्यक्त करते हैं।
प्रकृति और श्रृंगार: आम का पेड़, कदम का पेड़, और इन पेड़ों पर बनाए गए झूले कजरी के प्रमुख विषय हैं।
दिव्य प्रेम: राधा और कृष्ण की कहानियां - दिव्य प्रेमियों की प्रतिष्ठित छवि को भी कजरी में चित्रित किया जाता है।
संदेश वाहक: कागा (कौआ) अक्सर एक संदेशवाहक के रूप में वर्णित किया जाता है, जो दूर देशों में परदेसी सैंया (प्रेमी) को संदेश ले जाता है।

पूरब की आवाज़: कहाँ गूंजती है कजरी?

कजरी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के क्षेत्रों में गाई जाती है । इन राज्यों के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में बनारस, मिर्जापुर, मथुरा, इलाहाबाद और बिहार के भोजपुरी इलाके शामिल हैं । यह पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों में भी प्रचलित है । मिर्जापुर को कजरी परंपरा का केंद्र माना जाता है, और "मिर्जापुरी" और "बनारसी" कजरी को इस शैली की प्रमुख शैलियों के रूप में जाना जाता है । इसी तरह के गीत अवधी और मैथिली जैसी संबंधित भाषाओं में भी मिलते हैं । कजरी की लोकप्रियता बड़े शहरी केंद्रों जैसे मुंबई और कोलकाता तक भी फैली हुई है ।   

कजरी का उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में केंद्रित होना इसकी मजबूत भाषाई और सांस्कृतिक पहचान को रेखांकित करता है। ये विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र कजरी के प्राथमिक क्षेत्र के रूप में लगातार पहचाने जाते हैं। यह इंगित करता है कि संगीत का यह रूप इन क्षेत्रों की स्थानीय भाषा और सांस्कृतिक प्रथाओं में गहराई से निहित है जिसमें कजरी इस आम परंपरा की भोजपुरी अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करती है।

कजरी के सुर: कुछ जाने-माने नाम

बनारस घराने की रसूलन बाई, सिद्धेश्वरी देवी और गिरिजा देवी ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण शख्सियतें हैं जिन्होंने कजरी को लोकप्रिय बनाया । मालिनी अवस्थी एक जानी-मानी समकालीन कजरी गायिका हैं । कजरी गायकों को अक्सर अपनी गायन क्षमताओं को विकसित करने और कजरी से जुड़ी अनूठी शैली और तकनीकों में महारत हासिल करने के लिए कठोर प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है । ये गायक कजरी की सांस्कृतिक विरासत को जीवित और जीवंत रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।   

बनारस घराने की दिग्गज: रसूलन बाई, सिद्धेश्वरी देवी और गिरिजा देवी जैसे बनारस घराने के संगीतकारों ने कजरी को शास्त्रीय संगीत के दायरे में लाया।
अमीर खुसरो: कहा जाता है कि अमीर खुसरो ने सदियों पहले कजरी लिखी थी, जो आज भी प्रासंगिक है।
पद्म श्री मालिनी अवस्थी: लोक गीतों की इस विरासत को जीवित रखने का श्रेय पद्म श्री मालिनी अवस्थी जी को जाता है, जिन्होंने अपने भावुक और मधुर गायन से इस गीत को अमर बना दिया है।
अन्य प्रसिद्ध गायक: श्याम बिहारी गौड़, उर्मिला श्रीवास्तव, रवि किचलू, लक्ष्मी शंकर, डॉ. रेवती सकलकर और अंजलि जैन जैसे कलाकार भी कजरी गाने के लिए जाने जाते हैं।
शारदा सिन्हा: इन्हें "बिहार कोकिला" कहा जाता है। इनके कजरी गीतों ने इसे राष्ट्रीय पहचान दिलाई।
कल्पना पटवारी: इनकी मधुर आवाज़ ने कजरी को युवा पीढ़ी तक पहुँचाया।

कजरी का सांस्कृतिक मोल: परंपरा और भावना का संगम

कजरी लोकगीतों का सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक है, खासकर उत्तर भारतीय समाज में महिलाओं के लिए । पारंपरिक रूप से सावन के महीने (मानसून के मौसम) के दौरान महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले ये गीत उन्हें सामाजिक बंधनों और लैंगिक मानदंडों से निपटने और उनका सामना करने के लिए महत्वपूर्ण साधन प्रदान करते हैं । कजरी महिलाओं के लिए एक भावनात्मक अभिव्यक्ति और मुकाबला करने का तंत्र है, जो उन्हें भावनाओं, संघर्षों और जीवन के अनुभवों की एक विस्तृत श्रृंखला को व्यक्त करने का माध्यम प्रदान करता है । ये गीत ग्रामीण उत्तर भारत में महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली सामाजिक वास्तविकताओं, सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और दैनिक चुनौतियों को दर्शाते हैं, जिसमें पुरुष प्रवासन और पितृसत्तात्मक मानदंडों जैसे मुद्दे शामिल हैं । कजरी सांस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं और प्रथाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित और प्रसारित करने का भी एक साधन है । यह महिलाओं को उन मुद्दों को व्यक्त करने के लिए एक लैंगिक-पृथक स्थान प्रदान करता है जिन पर वे पितृसत्तात्मक समाज में खुलकर चर्चा करने में सक्षम नहीं हो सकती हैं । कजरी गीतों में रूपकों और प्रतीकात्मक भाषा के माध्यम से महिला कामुकता और इच्छा को भी एक गुप्त तरीके से व्यक्त किया जाता है । ये गीत पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं के अनुरूप महिलाओं और सामाजिक अपेक्षाओं और अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध दोनों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं । साझा भावनाओं पर साहित्य बनाकर, कजरी महिलाओं के बीच एकजुटता और समुदाय की भावना को बढ़ावा देता है । मिर्जापुर में कजरी का कजरी महोत्सव (कजरी तीज) से भी गहरा संबंध है, जिसमें महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती हैं और नीम के पेड़ की पूजा करती हैं ।   

कजरी के रंग: कुछ लोकप्रिय गीतों के बोल

कजरी के गीतों के बोल अक्सर प्रेम, विरह, तड़प और मानसून के मौसम के सौंदर्य के विषयों के आसपास घूमते हैं । "बरसन लागी बदरिया रुम झुम के," "सावन की ऋतु आई री सजनिया प्रीतम घर नहीं आए," और "सजन नहीं आए सखी" जैसे लोकप्रिय पुराने कजरी गीत आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं । रसूलन बाई, सिद्धेश्वरी देवी और गिरिजा देवी जैसे प्रसिद्ध कजरी गायकों के गीतों के बोल और ऑडियो रिकॉर्डिंग ऑनलाइन आसानी से उपलब्ध हैं । यूट्यूब जैसे माध्यमों पर भी कजरी के गीतों के अंश देखे जा सकते हैं । इन गीतों में अक्सर रूपकों का प्रयोग किया जाता है, जैसे कि काले बादल विरह का प्रतीक ("कजरारे नैना" या काजल से सजी आंखें) और कौवा संदेशवाहक के रूप में ।

सावन महीना मेरा जिया जले: अंजलि जैन द्वारा गाया गया यह आधुनिक कजरी गीत सावन के महीने में विरह की व्यथा को दर्शाता है।
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री – कि सावन आया: यह गीत एक ऐसी बेटी की भावनाओं को व्यक्त करता है जो अपने मायके आना चाहती है और माँ से पिता को भेजने की विनती करती है।
मोती झील से: डॉ. रेवती सकलकर द्वारा गाया गया यह भोजपुरी लोक गीत (कजरी) प्रकृति और प्रेम के थीम को जोड़ता है।

कजरी अकेली नहीं: कुछ और ऐसे ही त्यौहार और गीत

कजरी इसी क्षेत्र के अन्य मौसमी लोकगीतों जैसे चैती, होरी और सावन की श्रेणी में आती है, जो वर्ष के विशिष्ट समय पर गाए जाते हैं । चैती चैत्र महीने (मार्च-अप्रैल) के दौरान गाई जाती है और यह वसंत के आगमन का उत्सव है । होरी पारंपरिक रूप से होली के त्योहार के दौरान गाई जाती है, जिसमें अक्सर कृष्ण और राधा के चंचल संवादों का चित्रण होता है । झूला गीत उत्तर प्रदेश और बिहार में लोकप्रिय हैं, जो मानसून के दौरान महिलाओं द्वारा झूलों पर गाए जाते हैं । बारहमासा गीत वर्ष के बारह महीनों में विरह की पीड़ा का वर्णन करते हैं । भारत के अन्य हिस्सों में भी मानसून से संबंधित लोक संगीत की क्षेत्रीय विविधताएं मिलती हैं, जैसे मणिपुर में कुमदम एशेई, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में पारंपरिक गीत, और महाराष्ट्र में भिलारी और शेतकरी गीत ।

आज की कजरी: क्या अब भी है वही जादू?

कजरी आज भी भारत के विभिन्न हिस्सों में मानसून के मौसम में गाई और पसंद की जाती है । सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के माध्यम से इसकी लोकप्रियता में पुनरुत्थान देखा गया है, और पुराने कजरी गीतों के अंश बारिश-थीम वाली रीलों के लिए लोकप्रिय साउंडट्रैक बन रहे हैं । कुछ समकालीन गायक नए कजरी गीतों की रचना कर रहे हैं, जबकि अन्य क्लासिक प्रस्तुतियों को अपनी शैली में गाते हैं । संगीत ऐप्स ने कजरी को व्यापक दर्शकों के लिए सुलभ बना दिया है । हालांकि, आधुनिक मनोरंजन से प्रतिस्पर्धा और युवा पीढ़ी के सांस्कृतिक जड़ों से दूर होने के कारण पारंपरिक कला रूपों के लुप्त होने की चिंताएं भी हैं ।

निष्कर्ष: कजरी - एक अनमोल विरासत

कजरी भोजपुरी भाषी क्षेत्रों की एक अनमोल सांस्कृतिक विरासत है। यह न केवल एक मधुर लोकगीत परंपरा है, बल्कि मानसून के मौसम के साथ इसका एक अद्वितीय भावनात्मक और सांस्कृतिक संबंध है। प्रेम, विरह और प्रकृति के सौंदर्य से भरे इसके गीत आज भी लोगों के दिलों को छूते हैं। कजरी की उत्पत्ति, इसका ऐतिहासिक विकास और सांस्कृतिक महत्व इसे भारतीय लोक संगीत की एक महत्वपूर्ण धारा बनाते हैं। आधुनिक समय में, जबकि कई पारंपरिक कला रूप लुप्त हो रहे हैं, कजरी ने सोशल मीडिया और विभिन्न संरक्षण प्रयासों के माध्यम से अपनी पहचान बनाए रखी है। यह लोक संगीत की शक्ति और इसकी स्थायी अपील का प्रमाण है। आने वाली पीढ़ियों के लिए इस अनमोल विरासत को जीवित रखने के लिए निरंतर प्रयास आवश्यक हैं ताकि कजरी की मधुर ध्वनि हमेशा हमारी संस्कृति में गूंजती रहे।

Written by - Sagar

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2025-04-22 11:55:08

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