
Ganga Dussehra: Mythology of Gangavataran, significance, puja vidhi and modern message
गंगा दशहरा: माँ गंगा के स्वर्ग से धरती पर अवतरण की अद्भुत कहानी
गंगा दशहरा, जिसे गंगावतरण भी कहते हैं, हिंदू धर्म के सबसे पावन त्योहारों में से एक है जो माँ गंगा के स्वर्ग से धरती पर अवतरण का उत्सव मनाता है। गंगा दशहरा ज्येष्ठ मास (हिंदू कैलेंडर का तीसरा महीना) के शुक्ल पक्ष (चंद्रमा के बढ़ते चरण) की दशमी तिथि को मनाया जाता है । इस दिन करोड़ों श्रद्धालु गंगा नदी में पवित्र स्नान करते हैं और माँ गंगा से अपने पापों की क्षमा और मोक्ष की कामना करते हैं।
गंगा दशहरा क्या है और क्यों मनाते हैं?
गंगा दशहरा, हिंदू धर्म का एक बेहद पवित्र और महत्वपूर्ण त्योहार है, जिसे हर साल ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को पूरे भारत में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है. यह वो खास दिन है जब स्वर्ग से पवित्र गंगा मैया धरती पर आईं, और तब से वे हमें जीवनदायिनी जल और आध्यात्मिक शुद्धि प्रदान कर रही हैं.
इस पावन अवसर पर गंगा नदी में स्नान करने, दान-पुण्य करने और पूजा-पाठ करने का विशेष महत्व है. ऐसी मान्यता है कि इस दिन गंगा में डुबकी लगाने से व्यक्ति को जन्मों-जन्मों के पापों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है, जिससे उसका जीवन खुशियों से भर जाता है.
क्या आपने कभी सोचा है कि इस पावन पर्व का नाम 'गंगा दशहरा' क्यों पड़ा? दरअसल, 'दश' का अर्थ है दस और 'हरा' का मतलब है हरण करना या मिटाना. ये त्योहार सिर्फ गंगा के धरती पर आने का जश्न नहीं, बल्कि दस तरह के पापों (वाणी, मन, कर्म, काल, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या एवं हिंसा से जुड़े) चाहे वे शरीर से किए गए हों, वाणी से या मन से – को धोने का एक अद्भुत अवसर है. यह नाम ही इस बात को दर्शाता है कि यह पर्व केवल बाहरी शुद्धि नहीं, बल्कि हमारे भीतर की हर नकारात्मकता को दूर कर हमें आध्यात्मिक रूप से नया जीवन देने वाला है. यह हमें याद दिलाता है कि यह सिर्फ एक नदी में डुबकी लगाना नहीं, बल्कि अपने जीवन को एक नई, पवित्र दिशा देना है.
गंगा दशहरा पर अक्सर कई शुभ योगों का दुर्लभ संयोग बनता है, जैसे रवि योग, दग्ध योग, राजयोग, सिद्धि योग, सर्वार्थ सिद्धि योग और हस्त नक्षत्र. इन शुभ योगों में किए गए पूजा-पाठ और दान का महत्व कई गुना बढ़ जाता है, जिससे भक्तों को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है.
पौराणिक कथाएँ: माँ गंगा का धरती पर अवतरण
राजा सगर और अश्वमेध यज्ञ
बहुत समय पहले, अयोध्या में सगर नाम के एक महाप्रतापी राजा राज्य करते थे. उनकी दो रानियाँ थीं - केशिनी और सुमति. संतान प्राप्ति के लिए उनकी कठोर तपस्या के बाद, केशिनी को असमंजस नामक एक पुत्र और सुमति को साठ हज़ार अभिमानी पुत्र प्राप्त हुए.
एक बार राजा सगर ने इंद्र पद प्राप्त करने के उद्देश्य से एक विशाल अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया. इस यज्ञ की पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा गया, जिसकी रक्षा का कार्य उन्होंने अपने साठ हज़ार पुत्रों को सौंपा. लेकिन देवराज इंद्र को यह यज्ञ रास नहीं आया. उन्होंने छल से यज्ञ के घोड़े को चुरा लिया और उसे कपिल मुनि के आश्रम में छिपा दिया.
घोड़े को ढूंढते हुए सगर पुत्र कपिल मुनि के आश्रम पहुँचे. घोड़े को वहाँ बंधा देखकर उन्हें लगा कि कपिल मुनि ने ही उसे चुराया है. क्रोध में आकर वे मुनि को अपशब्द कहने लगे. उस समय कपिल मुनि अपनी तपस्या में लीन थे. राजा सगर के पुत्रों के अपशब्द सुनकर उनकी तपस्या भंग हो गई और वे अत्यंत क्रोधित हो गए. कपिल मुनि ने जैसे ही अपनी आँखें खोलीं, उनकी आँखों से निकली ज्वाला ने साठ हज़ार सगर पुत्रों को पल भर में ही भस्म कर दिया. उनकी अस्थियाँ वहीं कपिल मुनि के आश्रम में पड़ी रह गईं, और उन्हें मोक्ष नहीं मिल पाया.
भागीरथ की अथक तपस्या और गंगा का आगमन
राजा सगर अपने पुत्रों की इस दुर्गति से बहुत दुखी हुए और उनकी मुक्ति के लिए चिंतित रहने लगे. उनके बाद उनके वंशजों ने भी कई प्रयास किए, लेकिन कोई भी गंगा को धरती पर लाने में सफल नहीं हो पाया. यह कहानी हमें एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात सिखाती है: महान कार्यों के लिए सिर्फ एक व्यक्ति का प्रयास काफी नहीं होता, बल्कि पीढ़ियों का समर्पण और अथक परिश्रम चाहिए होता है. यह हिंदू धर्म की एक गहरी अवधारणा, पितृ ऋण, यानी अपने पूर्वजों के प्रति कर्तव्य को पूरा करने के महत्व को दर्शाती है. भागीरथ की सफलता, इसलिए, केवल उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं, बल्कि सामूहिक प्रयास और पारिवारिक जिम्मेदारी की अंतिम जीत का प्रतीक बन जाती है.
अंत में, राजा सगर के वंशज दिलीप के पुत्र भागीरथ ने अपने पूर्वजों को मोक्ष दिलाने का बीड़ा उठाया. उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए घोर तपस्या की. उनकी कठोर तपस्या से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और गंगा को पृथ्वी पर भेजने को तैयार हो गए.
परंतु एक नई चुनौती सामने आई! गंगा का वेग इतना प्रचंड था कि पृथ्वी उसे संभाल नहीं सकती थी, और इससे भारी तबाही मच सकती थी. इसलिए ब्रह्माजी ने भागीरथ को भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त करने की सलाह दी. भागीरथ ने फिर भगवान शिव की आराधना की, और शिवजी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा को अपनी जटाओं में धारण करने को तैयार हो गए.
लगभग बत्तीस दिनों तक गंगा शिव की जटाओं में विचरण करती रहीं, मानो वे धरती पर आने के लिए सही समय का इंतज़ार कर रही हों. भागीरथ की बार-बार विनती पर शिवजी ने अपनी एक जटा खोली और गंगा धीरे-धीरे धरती पर अवतरित हुईं. गंगा के पृथ्वी पर आते ही सगर पुत्रों की अस्थियों को स्पर्श मिला और उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ. यह अद्भुत घटना ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तिथि को हुई थी, और तभी से हर साल इस दिन को गंगा दशहरा के रूप में मनाया जाता है.
गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा में अंतर
अक्सर लोग गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा को एक ही मान लेते हैं, लेकिन ये दोनों अलग-अलग पर्व हैं. गंगा सप्तमी वह दिन है जब माँ गंगा पहली बार पर्वत पर आईं. वहीं, गंगा दशहरा वह दिन है जब माँ गंगा मैदानी इलाकों में आईं और राजा भागीरथ के पीछे-पीछे पृथ्वी पर पहुंचीं.
धर्मग्रंथों में गंगा: कहाँ-कहाँ मिलता है उल्लेख?
गंगा मैया की महिमा सिर्फ लोककथाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में भी उनका विस्तार से वर्णन मिलता है. ये ग्रंथ बताते हैं कि गंगा केवल एक नदी नहीं, बल्कि साक्षात देवी हैं, जिनमें पापों को हरने और मोक्ष प्रदान करने की अद्भुत शक्ति है.
विभिन्न पुराणों में गंगा की महिमा
मत्स्य पुराण: इस पुराण में मार्कण्डेय मुनि ने युधिष्ठिर महाराज को बताया है कि गंगा के नामों का कीर्तन करने से सभी पापों का नाश हो जाता है, और केवल उनके दर्शन मात्र से शुभता प्राप्त होती है. प्रयागराज में, जहाँ गंगा स्थित हैं, वहाँ प्रवेश करने मात्र से ही प्राणी के पाप नष्ट हो जाते हैं. यह भी कहा गया है कि गंगा में स्नान और गंगा जल का पान करने से मनुष्य अपने साथ-साथ, अपने कुल की सात पीढ़ियों को भी शुद्ध कर देता है.
स्कंद पुराण: यह ग्रंथ विष्णुप्रयाग और देवप्रयाग जैसे पवित्र संगम स्थलों का विस्तार से वर्णन करता है, जहाँ अलकनंदा और भागीरथी जैसी धाराएँ मिलकर पवित्र गंगा कहलाती हैं.
अग्नि पुराण और पद्म पुराण: इन ग्रंथों के अनुसार, ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को ही गंगा मैया पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं.
वराह पुराण: इसमें स्पष्ट उल्लेख है कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हस्त नक्षत्र में ही श्रेष्ठ नदी गंगा स्वर्ग से अवतरित हुई थीं और वह दस पापों को नष्ट करती हैं, इसीलिए उस तिथि को 'दशहरा' कहते हैं. इस पुराण में दिए गए गंगा स्तोत्र का पाठ करने से भी सभी पाप नष्ट हो जाते हैं.
देवी भागवत: इस ग्रंथ के अनुसार, सैकड़ों योजन दूर बैठा मनुष्य भी यदि गंगा के नाम का उच्चारण करता है, तो वह सभी पापों से मुक्त होकर भगवान श्रीहरि के धाम को प्राप्त करता है.
श्रीमद्भागवतम् में गंगा की दिव्य उत्पत्ति
श्रीमद्भागवतम् के पाँचवें स्कंध, सत्रहवें अध्याय (5.17) में गंगा नदी की उत्पत्ति का एक अद्भुत वर्णन मिलता है. इसमें बताया गया है कि जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार में राजा बलि से तीन पग भूमि माँगी थी, तब उन्होंने अपने विराट रूप में दो पग में ही तीनों ग्रह मंडलों को नाप लिया था. अपने बाएँ पैर की उँगलियों से उन्होंने ब्रह्मांड के आवरण में एक छिद्र कर दिया.
इसी छिद्र के माध्यम से कारण-सागर के जल की कुछ बूँदें रिसकर भगवान शिव के मस्तक पर एक हज़ार सहस्राब्दियों तक रहीं, और यही बूँदें पवित्र गंगा नदी के रूप में प्रकट हुईं. यह गंगा नदी पहले स्वर्गीय ग्रहों, विशेष रूप से चंद्रमा को जलमग्न करती है, और फिर मेरु पर्वत के ऊपर ब्रह्मपुरी से होकर बहती है. यहाँ से यह नदी चार प्रमुख शाखाओं (सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा) में विभाजित हो जाती है, जो अंततः खारे पानी के सागर में मिल जाती हैं. इनमें से अलकनंदा शाखा ही भरत-वर्ष (भारत) तक पहुँचती है. गंगा नदी ध्रुवलोक और सात ऋषियों के ग्रहों को भी शुद्ध करती है, क्योंकि ध्रुव और ऋषि दोनों की भगवान के चरण कमलों की सेवा करने के अलावा और कोई इच्छा नहीं है.
गंगा दशहरा का उत्सव: कहाँ और कैसे मनाया जाता है?
गंगा दशहरा का उत्सव पूरे भारत में, खासकर गंगा नदी के किनारे बसे शहरों में, बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है. यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक अनुभव है, जहाँ हर क्षेत्र अपनी अनूठी परंपराओं के रंग भरता है.
प्रमुख उत्सव स्थल
गंगा दशहरा मुख्य रूप से गंगा नदी के तटों पर स्थित पवित्र तीर्थ स्थलों पर भव्यता से मनाया जाता है. इनमें हरिद्वार, प्रयागराज (इलाहाबाद), काशी (वाराणसी), गढ़मुक्तेश्वर और पटना प्रमुख हैं. इन पावन स्थानों पर लाखों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाने और दान-पुण्य करने के लिए उमड़ते हैं.
हरिद्वार को 'गंगा द्वार' भी कहा जाता है, क्योंकि यहीं से गंगा पहाड़ों से उतरकर मैदानी इलाकों में प्रवेश करती है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा पर्वतों से निकलकर मैदान में दाखिल होती हैं, तो वह 'युवती' बन जाती हैं, जिससे हरिद्वार में उनका महत्व और भी बढ़ जाता है.
बिहार के प्रमुख घाटों पर भीड़: पटना का गांधी घाट, गोघाट, महाराज घाट, कृष्ण घाट, भागलपुर का सुल्तानगंज और कहलगाँव, बक्सर का स्थानीय घाट, मुंगेर का घाट, बेगूसराय का सीमरिया घाट आदि सहित तमाम छोटे-बड़े घाट इस दिन श्रद्धालुओं से खचाखच भर जाते हैं।
उत्तरायण गंगा का विशेष महत्व: बिहार में, विशेषकर सुल्तानगंज से कहलगाँव तक गंगा के उत्तरायण (उत्तर से दक्षिण की ओर बहने) को अत्यंत पवित्र माना जाता है। गंगा दशहरा पर इस खंड में स्नान करना अतुलनीय पुण्य का कारक माना जाता है। लाखों श्रद्धालु यहाँ "पुण्य स्नान" के लिए जुटते हैं।
उत्सव के तरीके और रीति-रिवाज
स्नान और पूजा: गंगा दशहरा के दिन प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है. यदि किसी कारणवश गंगा तट पर जाना संभव न हो, तो भक्त अपने घर पर ही पानी में गंगाजल मिलाकर स्नान कर सकते हैं, जिससे उन्हें पूर्ण पुण्य की प्राप्ति होती है. यह विश्वास गंगा की सर्वव्यापी पवित्रता को दर्शाता है, जहाँ उसकी उपस्थिति हर जल में मानी जाती है.
पूजा विधि: इस दिन माँ गंगा के साथ-साथ भगवान शिव और भगवान विष्णु की भी विशेष पूजा की जाती है. पूजा में कलश का उपयोग किया जाता है, जिसे गंगा जल, पान के पत्ते, आम्रपत्र, केसर, अक्षत, कुमकुम, दुर्वा-कुश, सुपारी, पुष्प, सूत और नारियल जैसी पवित्र वस्तुओं से सजाया जाता है. यह कलश सुख-समृद्धि और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना जाता है.
पूजा के दौरान "ॐ गंगायै नमः" या "हर हर गंगे", 'ॐ नमः शिवाय', का जाप किया जाता है। गंगा आरती का मंत्र है: "जय जय गंगे माता, मैया जय जय गंगे माता। जो नर तुमको ध्याता, मन वांछित फल पाता॥", 'गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति' यह मंत्र इतना शक्तिशाली माना जाता है कि इसे सुनते ही मन में शांति का अनुभव होता है।
दान का महत्व: गंगा दशहरा पर दान का विशेष महत्व है. मान्यता है कि इस दिन कम से कम दस की संख्या में दान करने से विशेष पुण्य मिलता है. दान में तिल, घी, कपड़े (विशेषकर सफेद), पंखा, जल का घड़ा (सुराई), अनाज, मौसमी फल (केला, नारियल, आम, खरबूजा), मिठाई, शरबत, जूते-चप्पल, सत्तू, नमक, शक्कर और स्वर्ण जैसी चीजें दी जाती हैं. यह दान ब्राह्मणों, जरूरतमंदों, साधुओं, वृद्धजनों या अनाथों को करना सर्वोत्तम होता है.
पितृ तर्पण: इस दिन अपने पितरों को याद करके जल अर्पण करना और तर्पण करना भी शुभ माना जाता है. ऐसा करने से पितृ दोष शांत होता है और परिवार में सुख-शांति आती है.
व्रत और दान: आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग
गंगा दशहरा के दिन व्रत रखना अत्यंत पुण्यकारी माना जाता है। कुछ लोग निर्जला व्रत (बिना पानी के) रखते हैं जबकि अन्य फलाहार व्रत करते हैं जिसमें फल, दूध और पानी का सेवन किया जाता है। व्रत के दौरान अन्न, दाल और भारी भोजन से बचा जाता है।
दान का विशेष महत्व है इस दिन। चूंकि यह त्योहार गर्मी के मौसम में आता है, इसलिए पानी के घड़े, पंखे, छाते और फल दान करना बेहद पुण्यकारी माना जाता है। गायों, पक्षियों और जरूरतमंदों को भोजन कराना भी इस दिन का विशेष कार्य है।
समय के साथ बदलाव: पारंपरिक से आधुनिक युग तक
आज के समय में गंगा दशहरा सिर्फ धार्मिक त्योहार नहीं रह गया बल्कि पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देता है। पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी जैसे आध्यात्मिक गुरु इस दिन गंगा संरक्षण का संदेश देते हैं। वे कहते हैं कि हमें प्लास्टिक का उपयोग बंद करना चाहिए, नदी में कूड़ा नहीं फेंकना चाहिए और अधिक पेड़ लगाने चाहिए।
पहले यह त्योहार केवल नदी के किनारे बसे लोग मनाते थे, लेकिन अब यह पूरे विश्व में फैल गया है। आज गंगाजल दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाया जाता है ताकि प्रवासी भारतीय भी इस पावन त्योहार को मना सकें। सोशल मीडिया के जमाने में गंगा आरती की लाइव स्ट्रीमिंग होती है जिससे दुनियाभर के लोग इस दिव्य अनुभव में शामिल हो सकते हैं।
आधुनिक संदेश: पवित्रता और संरक्षण का संतुलन
आज के गंगा दशहरा का सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि हमें माँ गंगा की पूजा के साथ-साथ उनका संरक्षण भी करना चाहिए। माँ गंगा केवल एक नदी नहीं बल्कि दिव्य माता का रूप हैं जो हमें जीवन, शांति, भक्ति और मोक्ष प्रदान करती हैं।
आज जब हम गंगा दशहरा मनाते हैं तो हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम माँ गंगा की सेवा और संरक्षण करेंगे। क्योंकि जो माँ हमारे पापों को धो देती है, उसे हमें प्रदूषण से मुक्त रखना चाहिए। यही है आज के जमाने का सच्चा गंगा दशहरा - पूजा के साथ संरक्षण का संकल्प।
निष्कर्ष
गंगा दशहरा सिर्फ एक त्योहार नहीं बल्कि हमारी आस्था, संस्कृति और पर्यावरण चेतना का संगम है। राजा भगीरथ की तपस्या से शुरू हुई यह परंपरा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। इस त्योहार का संदेश यह है कि आध्यात्मिक शुद्धता के साथ-साथ पर्यावरणीय जिम्मेदारी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। जब हम माँ गंगा की आरती करते हैं तो हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारी श्रद्धा सच्ची तभी है जब हम उनके अस्तित्व की रक्षा भी करें।
आइए इस गंगा दशहरा पर हम सभी मिलकर माँ गंगा से यह प्रार्थना करें कि वे हमेशा स्वच्छ और निर्मल बनी रहें, और हमें उनकी सेवा करने की शक्ति दें। हर हर गंगे!
Please login to add a comment.
No comments yet.